शिखर से ही निकलता है ढलान का रास्ता

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शिखर की भी सीमाएं होती हैं और इसीलिए ढलान का रास्ता भी शिखर से शुरू होता है। दरअसल देश की सबसे पुरानी और रसूख वाली राजनीतिक पार्टी देश की सियासत का शिखर चूमकर अब तेजी से वापस शून्य या अपने आगाज की और बढ़ती जा रही है। 17वीं लोक सभा के निराशापूर्ण परिणाम के बाद कांग्रेस का अंतरद्वंद्व और विरोधाभास जिस प्रकार सामने आ रहा है उससे प्रतीत होता है कि कांग्रेस इस दौर में उस चौराहे पर खड़ी है जहां उसके लिए मंजिल तलाशना कठिन होता जा रहा है। इस समय पार्टी के खेवनहार राहुल गांधी कांग्रेस की दुर्दशा से अनमने, उदास और निराश नजर आते हैं और यह निराशा अब हताशा में बदलती नजर आ रही है। उनकी हालत उस सेनापति की तरह हो गई है जो बिना संगठित सेना के युद्ध को जीतने के मंसूबे पाले हुए था जबकि उनकी हार कदाचित तय थी। वास्तव में बहुत सारे सियासी कारण हैं जिनकी नब्ज पड़ कर न रखना कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हुआ है।

पिछले दो दशक से देखने में आ रहा है कि धर्मनिरपेक्ष भारत में हिंदुत्व के उभार की हलचल पहचानने की कांग्रेस की नाकामी अब जानलेवा हो गई है। अपनी वैचारिक परम्पराओं को बचाए रखने की सनक में वे मंजिल की दिशा ही तय नहीं कर पा रहे हैं। अल्पसंख्यक वाद के सहारे सत्ता के शिखर को चूमने पर जब सवाल खड़े होने लगे तो कांग्रेस सामंजस्यता कायम रखने में नाकाम रही। पिछले एक दशक से कांग्रेस के दिग्गज अपने प्रचार में उस अल्पसंख्यक समुदाय से बचने का प्रयास कर रहे हैं जो कांग्रेस की विचारधारा के बूते भारत को अपना सुरक्षित देश समझता है। कांग्रेस की यह सियासी गलती इतनी जानलेवा हो गई है कि वे भोपाल, अलीगढ़ और आजमगढ़ जैसे इलाकों में भी शिकस्त खा जाते हैं। जबकि अल्पसंगयकों का भरोसा जीतकर अपना कोर वोट सुरक्षित रखने के प्रति कांग्रेस को मुखर होना चाहिए लेकिन वे उसे नजरअंदाज करने की लगातार गलती करते जा रहे हैं। देश में अनुसूचित जाति और जनजाति की 130 से ज्यादा सुरक्षित सीटें कांग्रेस का गढ़ हुआ करती थी। जवाहरलाल नेहरू की शिक्षा और औद्योगिकरण का फायदा इस तबके को खूब मिला। हर दस साल में आरक्षण बढ़ाने की परम्परा को कांग्रेस ने प्रतिबद्धता से पूरा भी किया।

इंदिरा गाँधी के दौर में इंदिरा आवास और दिग्विजय के मध्यप्रदेश में सरकारी भूमि पर पट्टे जैसे अभूतपूर्व कार्यों की बदौलत इस वर्ग को खूब फायदा हुआ। लेकिन इस समय की कांग्रेस इतनी मुद्दों से भटकी हुई नजर आती है कि न तो उसके कार्यक र्ता सामान्य जनमानस को अपनी विशेषताएं बता पाते हैं न ही उनमे ऐसी प्रतिबद्धता नजर आती है। नतीजा सुरक्षित सीटों से संजीवनी प्राप्त करने वाली कांग्रेस अब अपना जनाधार खोती हुई मरणासन्न अवस्था में पहुंच चुकी है। राष्ट्रवाद के उभार को कांग्रेस के पतन का सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है लेकिन इस पार्टी के नेता कांग्रेस के राष्ट्रवादी चरित्र को जनता के सामने बताने में ही नाकाम है। दरअसल राष्ट्रवाद का धर्म से कोई सामंजस्य नहीं है, यह वह विचार है जो कि सी राष्ट्र के नागरिकों में अपने देश और माटी के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करता है। जिन्ना का विरोध कांग्रेस के राष्ट्रवाद से ही तो था।

लेकिन कांग्रेस ने राष्ट्रवाद पर अडिग रहते हुए सभी धर्मों में विश्वास बनाये रखा और पाकिस्तान जमीन के एक टुकड़े तक ही सिमट गया। करीब 21 करोड़ मुसलमानों और करोड़ों अन्य अल्पसंख्यकों वाले देश में राष्ट्रवाद किसी एक धर्म तक कैसे संकुचित किया जा सकता है। नई पीढ़ी को कांग्रेस के नेता राष्ट्रवाद के प्रति अपनी निष्ठा को समझा ही नहीं पा रहे हैं। सियासत का सफर संगठन से तय होता है। 1885 में देश को आज़ाद करवाने के लिए कांग्रेस नामक एक संगठन बनाया गया था। यही संगठन आगे चलकर लोक आवाज बना। गांधी ने संगठन को जनता से जोड़ा और यह जनता की आवाज बन गया। जब संगठन जनता की आवाज बनता है तभी तो उसके प्रति जनता प्रतिबद्ध नजर आती है। अब गाँव-गाँव कांग्रेस की विचारधारा तो है लेकिन संगठन नहीं है।

इसके चुनिंदा नेता कुछ लोगों की भीड़ को अपनी जागीर समझने लगे हैं और अंतत: यही नेता बेलगाम हो जाते हैं। कांग्रेस में कार्य की संस्कृति कुछ इस प्रकार बन गई है कि व्यक्ति गत हितों से सर्वोपरि नेताओं के लिए कुछ ही नहीं है और इसीलिए यह पार्टी अनगिनत गुटों में नजर आती है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि लोक तांत्रिक बुनियाद को मजबूत करने वाली पार्टी आज़ादी के आठवें दशक में वहां पहुंच गई है जहां उसकी बुनियाद मिटने
का ही संकट पैदा हो गया है। 2019 के लोक सभा चुनाव में न्याय की एक बेशकीमती और लोक लुभावन योजना जनता के सामने प्रस्तुत की गई थी। पूरे चुनाव प्रचार में यह महसूस हुआ कि इस न्याय को राहुल गांधी के अतिरिक्त कोई जानता ही नहीं था। कांग्रेस की पुरानी पीढ़ी जनता के हितों के लिए प्रतिबद्ध थी और उनके स्वयं के हित नगण्य होते थे।

डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं, ये उनक निची विचार है)

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