शिक्षा दोधारी तलवार की तरह

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स्कायस्क्रैपर 2018 में आई एक फिल्म है, जिसमें 225 मंजिला, 3500 फीट की दुनिया की सबसे लंबी बिल्डिंग दिखाई गई है, जो अपने आप में एक शहर जैसी है, जिसमें घर, गार्डन और दुकानें हैं। आरामदायक जिंदगी के लिए जरूरी हर सामान इसमें मौजूद है, यानी किसी को फिर कभी जमीन छूने की जरूरत नहीं है। लोग हेलीपैड से कहीं भी जा सकते हैं और यहां उच्च सुरक्षा मापदंडों के साथ सर्वश्रेष्ठ संचार सुविधाएं हैं, जहां बिल्डिंग के सेफ्टी फीचर्स को दुनिया में कहीं से भी नियंत्रित कर सकते हैं। यह विचार महात्वाकांक्षी है, लेकिन शायद भविष्य में हकीकत बन जाए। लेकिन अभी तो यह काल्पनिक कहानी है। असली कहानी कल्पना से बहुत दूर है। हम जिस दुनिया में रहते हैं, वहां ऐसी कई जगहें हैं जहां फोन नेटवर्क मिल पाना हिमालय चढऩे जैसा है। हम कॉल ड्राप की चर्चा करते रहते हैं और फोन का नेटवर्क चले जाने पर या अपने करीबियों से संपर्क न हो पाने पर सामान्य दिनों में भी चिंतित हो जाते हैं। फिर संकट के समय क्या होगा, यह तो पूछिए ही मत। मुझे खुद इसका अनुभव शुक्रवार रात को हुआ जब कोझिकोड में एयर इंडिया एक्सप्रेस का विमान दो हिस्सों में टूट गया और दो पायलट समेत 18 लोगों की जान चली गई। मुझे छोड़कर, मेरे परिवार में सभी एविएशन इंडस्ट्री में काम करते हैं और वे अपनी इंडस्ट्री से जुड़े हादसे के बारे में लगातार जानकारी पाना चाहते थे। तभी मुझे एक बेटी और पिता के बारे में पता चला, जो एक-दूसरे से कुछ घंटों के लिए नहीं, बल्कि पूरे दो दिन संपर्क नहीं कर सके।

खासतौर पर तब जब पिता बेटी की परीक्षा का नतीजा जानना चाहते थे और बेटी बताना चाहती थी कि उसने पहले प्रयास में ही यूपीएससी पास कर ली है और देश में 257वीं रैंक हासिल की है। वह देहरादून में थी और उसका परिवार 145 किमी दूर, उाराखंड के एक गांव में था। बेटी तब तक परिवार से बात नहीं कर पाई, जब तक मिट्टी के घर में रहने वाले उसके पिता ने एक छोटी पहाड़ी पर ऐसी जगह नहीं तलाश ली, जहां फोन में सिग्नल आ जाएं। उसने उन्हें रिजल्ट बताया और उसके पिता को महसूस हुआ कि वे दुनिया में सबसे ऊंची जगह खड़े हैं, जैसा स्कायस्क्रैपर के हीरो को सबसे ऊंची बिल्डिंग पर खड़े होकर लगा होगा। दोनों के आंसू बहने लगे। फिल्म में हीरो रोता है क्योंकि वह विलेन को मारकर अपने परिवार को बचा लेता है, जबकि इस वास्तविक कहानी में पिता जानता है कि उसकी हीरोइन बेटी ने विलेन (गरीबी) को मार दिया है और परिवार को भी बचा लिया है, हालांकि अलग तरीके से। फिल्म में ड्वेन जॉनसन ने हीरो की भूमिका निभाई थी, जो पड़ोस में बन रही बिल्डिंग के कंस्ट्रक्शन इक्विपमेंट से दुनिया की सबसे ऊंची इमारत पर छलांग लगाता है। वास्तविक कहानी में 28 वर्षीय कुमारी प्रियंका परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए पिता के साथ खेतों पर काम करती है और ट्यूशन पढ़ाती है और फिर भी अंतत: गरीबी से बचने के लिए दूसरी दुनिया में छलांग लगाती है। प्रियंका और उस जैसे सैकड़ों लोग मेरे लिए सच्चे हीरो हैं, जिन्होंने न सिर्फ गरीबी का पुल पार किया बल्कि उनके लिए भी चीजें आसान करने की कोशिश की, जो उनके नक्शेकदमों पर चलते हैं।

फंडा यह है कि शिक्षा दोधारी तलवार की तरह है जो व्यक्ति के लिए तो अच्छा करती ही है, समाज में दूसरों को भी ऊपर उठाती है। वहीं गरीबी को तो निश्चित-तौर पर खत्म करती है। तकनीक की भाषा सर्वोपरि: पश्चिम बंगाल के वन विभाग ने 30 जुलाई को संविदा आधार पर 10 हजार रुपये मासिक तनवाह वाले वनसहायकों के दो हजार पदों पर भर्ती का विज्ञापन निकाला। पर इसमें एक शर्त थी। विज्ञापन में लिखा था कि 100 में से 60 अंक प्रतिभागी के बांग्ला में लिखने-पढऩे की क्षमता के मूल्यांकन पर आधारित होंगे। आप सोच सकते हैं कि इसमें गलत क्या है? पर सिर्फ स्थानीय लोगों ने ही नहीं बल्कि कई राजनीतिक पार्टियों ने इस पर आपत्ति उठाई कि बांग्ला मीडियम से पढ़ाई न करने वाले छात्र इस नौकरी से वंचित रह जाएंगे। और इस शुक्रवार को वन विभाग ने विज्ञापन संशोधन जारी करते हुए किसी भी आधिकारिक राज्य भाषा की अनुमति दे दी है। इन दिनों मैं टोबी वाल्श की किताब ‘2062Ó पढ़ रहा हूं, इसमें बताया गया है कि कैसे 2062 तक दुनिया पूरी तरह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर आधारित होगी और तब तकनीक की भाषा सर्वोपरि होगी। पर अब आने वाले सालों में हम ‘होमो सेपियंस’ पूरी तरह से ‘होमो डिजिटल्स’ बनने के लिए तैयार हैं।

एक कंप्यूटर कोड होगा, जिसे तत्काल प्रभाव से लागू किया जा सकेगा और इसे लाखों लोगों को आगे ट्रांसफर किया जा सकेगा जैसे कि एपल फोन अपने मालिक को उसकी आवाज से पहचानता है और उसके आदेशों का पालन करता है। कल्पना करें कि इंसान होकर भी आप स्मार्ट फोन या कम्प्यूटर की गति से कुछ सीखेंगे! और यह सब 2062 तक होने जा रहा है, तब की ‘होमो डिजिटल’ पीढिय़ां आज भाषा के नाम पर भावनात्मक होने वाले हम ‘होमो सेपियंस’ की जगह ले लेंगी।युनिवर्सल कम्प्युटिंग मशीन दो अवधारणों पर आधारित हैं- ‘डाटा’ और ‘प्रोग्राम।’ इसे किसी रेसिपी की तरह सोचें। समस्या सुलझाने (डिश बनाने) के लिए कम्प्यूटर डाटा (रेसिपी) लेता है और प्रोग्राम (कुकिंग) का पालन करता है। आपकी जेब में मौजूद स्मार्टफोन का भी यही राज है। यह नए एप्स के साथ, जिन्हें हम प्रोग्राम कहते हैं, नए काम पूरा करने की अनुमति देता है। सोचिए अगर फोन को लगे कि वह अपने मालिक की कुछ काम में मदद नहीं कर पा रहा है और फोन खुद ही बाजार से एक प्रोग्राम खोजकर उस चीज़ को सीखने के लिए खुद को अपडेट कर ले, तब कहा जाएगा कि यह मशीन ‘आर्टफिशियल इंटेलिजेंस’ पर काम कर रही है! फंडा यह है कि याद रखें कि बच्चों ने इस महामारी के कारण अपने फोन और कम्प्यूटर पर सीखना शुरू कर दिया है, शायद यह ‘होमो डिजिटलिस’ बनने की दिशा में पहला कदम है।

एन.रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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