राष्ट्रीय शिक्षा नीति के एक साल होने पर मेडिकल कॉलेजों के दाखिले में ओबीसी अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी व और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का ऐलान स्वागत योग्य है। हर साल ऑल इंडिया कोटा स्कीम के तहत एमबीबीएस, एमएस, बीडीएस, एमडीएस, डेंटल, मेडिकल और डिप्लोमा में 5,550 कैंडिडेट्स को आरक्षण की नई व्यवस्था का फायदा मिलेगा। ऑल इंडिया कोटा स्कीम 1986 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य दूसरे राज्य के स्टूडेंट्स को अन्य राज्यों में भी आरक्षण का लाभ उठाने में सक्षम बनाना था। साल 2008 तक ऑल इंडिया कोटा स्कीम में कोई आरक्षण नहीं था, लेकिन साल 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने इस स्कीम में अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण की शुरुआत की थी। अब इसमें ओबीसी व ईडल्यूएस भी शामिल हो गए हैं। इससे पहले मेडिकल कालेजों में दाखिले से जुड़े आल इंडिया कोटे में ओबीसी को आरक्षण नहीं दिया जा रहा था।
2019 में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए एक संवैधानिक संशोधन किया गया था। इसके मुताबिक मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में सीटें बढ़ाई गई ताकि अनारक्षित वर्ग पर इसका कोई असर न पड़े, लेकिन इस श्रेणी को ऑल इंडिया कोटा योजना में शामिल नहीं किया गया था। बेशक यह केंद्र सरकार का राजनीति से प्रेरित फैसला है, फिर भी इसका व्यापक प्रभाव पडऩे वाला है। असर इस बात पर बहस होती रही है कि आरक्षण नौकरी से अधिक जरूरी शिक्षा संस्थानों में है। सामाजिक असमानता दूर करने की दिशा में अगर हमें बढऩा है तो पिछड़े तबकों को अधिक से अधिक शैक्षिक अवसर देने होंगे। यूं तो देश में आरक्षण राजनीतिक हथियार बन कर रह गया है, लेकिन इसके जरिये अगर पिछड़ापन दूर होता है तो यह अच्छी बात है। यह मेडिकल शिक्षा तक ही सीमित ना रहे, इसे इंजीनियरिंग, सूचना प्रौद्योगिकी, सभी तकनीक व स्किल शिक्षा पाठ्यक्रमों के संस्थानों में प्रवेश के स्तर पर भी बढ़ाया जाना चाहिए।
चूंकि शिक्षा का पूरा स्वरूप बदल चुका है और उसमें परंपरागत शिक्षा पाठ्यक्रम आउडेटेड हो गए हैं। अब नए स्किल बेस्ड नौकरियां है, स्वरोजगार है, इसलिए हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्थाए पाठ्यक्रम व संस्थान बदलने चाहिए। देश में जितने भी युनिवर्सिटी है, कालेज है, तकनीकी शिक्षण संस्थान है, उनमें नई इंडस्ट्री, नए जरूरतों के हिसाब से कोर्स डिजाइन किए जाने चाहिए। नई शिक्षा नीति के एक साल होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो बड़े ऐलान किए, पहला विद्या प्रवेश प्रोग्राम के जरिए गांवों में भी बच्चों को प्ले स्कूल की सुविधा मिलेगी। अब तक यह कॉन्सेप्ट शहरों तक सीमित है। दूसरा, इंजीनियरिंग के कोर्स का 11 भारतीय भाषाओं में ट्रांसलेशन के लिए टूल डेवलप किया गया है। यह शैक्षिक बदलाव की दिशा में अहम कदम है, पर वही काफी नहीं है।
देश में हमारे समूची शैक्षिक व्यवस्था व पाठ्यक्रमों को एक राष्ट्रीय स्वरूप देना जरूरी है। नई शिक्षा नीति में 3 से 18 वर्ष की आयु वाले बच्चों के लिए 5334 डिजाइन वाली अंतरराष्ट्रीय स्तर की शैक्षणिक संरचना अच्छी बात है पर देश में शिक्षा बोर्डों की भरमार ठीक नहीं है। माध्यमिक स्तर पर सीबीएससी जैसा एक राष्ट्रीय बोर्ड होना चाहिए। केंद्रीय व राज्यों के अलग-अलग बोर्ड नहीं होने चाहिए। इससे शैक्षिक पाठ्यक्रमों में एक रूपता नहीं आ पाती है। यूनिवर्सिटी, कॉलेजों को स्किल, इंडसट्रियल, तकनीक और उच्च प्रौद्योगिकी शिक्षा का हब बनाया जाना चाहिए। एक राष्ट्र एक शिक्षा व्यवस्था व पाठ्यक्रम से देश में शैक्षिक एकरूपता आ पाएगी। केंद्र को इस पर ध्यान देना चाहिए। बड़े एजुकेशनल रिफॉर्म जरूरी है।