स्वरा भास्कर, करीना कपूर खान, सोनम कपूर आहूजा, ऋ चा चड्ढा, आमिर खान, प्रियंका चोपड़ा, मलाला यूसुफजई, शबाना आज़मी…सब आज खुश तो बहुत होंगे आखिरकार, यहां न सही अफगानिस्तान में ही सही शरिया का कानून लागू हो रहा है जिसकी ये सब सदैव पैरवी करते रहे और वह कितना अच्छा यह जताने गंगा-जमुनी तहज़ीब और भाईचारे की दुहाई देते रहे?मगर, यह क्या सबकी बोलती बंद वहां तो भाई ही भाई का दुश्मन बन बैठा और यह क्या शरीयत का नाम सुनकर वहां के लोग जान हथेली पर रखकर भाग रहे हैं । यहां तक कि वहां की फिल्मकार सहरा करीमी खुला खत लिख रही हैं फिर भी कोई संज्ञान नहीं ले रहा । जबकि, आप सबका पेशा एक तो फिर क्यों उनका दर्द आपको महसूस नहीं हो रहा ? जबकि, एक बच्ची तक के दर्द को आप महसूस कर के तख्ती लेकर खड़े हो जाते हैं ।
यही नहीं आमिर खान की वाइफ को तो भारत में डर लगता तो फिर उन्हें वहां का टिकट कटा लेना चाहिए जहां अमन का नया ठिकाना और उनके लिए शांति का मतलब यही है कि उनके यहां गान्धी जैसे महात्मा जन्म नहीं लेते,वहां तो गजनवी, खिलजी, तैमूर, और अदाली, मोहम्मद गौरी जैसे लोग जन्म लेते हैं । जिनके शदकोश में अमन व शांति के लिए कोई जगह नहीं। यह तो सिर्फ सनातन का सिद्धांत जहां मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है पर, अब वह भी इसे भूल रहा कि ज्यादातर जिसको बचाया उसी ने पीठ पर खंजर घोपा तो अब वह भी स्वार्थी बन रहा है । हमारे इतिहासकार सब किधर घुस गए जो सालों तक हमें पढ़ाते रहे कि मुगल काल तो स्वर्णिम युग जहां हमारे देश ने इतनी ज्यादा तरक्की की,हम जाहिल-गंवार से एकदम जेंटलमैन बन गए और लाल किला, ताजमहल देकर उन्होंने हमें कृतार्थ कर दिया।
उनकी दरियादिली के इतने किस्से लिखे कि हम लोग आतंकियों को महान कहने लगे लेकिन, आज जब अफगानिस्तान पर तालिबानियों का तथाकथित शांतिपूर्ण तरीके से किया गया कजा देखा तो लगा जिन्होंने अपनी ही कौम की नन्ही कलियों को खिलने से पहले तोड़ लिया वो भला क्या काफिरों से मुहबत करेंगे ? जिसको हमारे मनोमस्तिष्क में बिठाने को जोधा-अकबर जैसी बकवास कहानी भी गढ़ ली और फिल्मकारों ने रहीसही कसर पूरी करते हुए यूँ दिखाया मानो अकबर तो इतना हैंडसम, स्मार्ट और दरियादिल जिसको जोधा के मंदिर बनाने या भजन गाने से कोई ऐतराज नहीं बल्कि, वह तो उसकी मर्जी के बिना उसके करीब भी नहीं जाता है ।
यह देखकर लड़कियां समझें कि अकबर से इश्क किया जा सकता तो वे करने लगी। अकबर महान-पीढियां रटती रहीं । भूल ही गई कि उसके नायक यह नहीं बल्कि, ये तो उनके हत्यारे हैं मगर, इन बिकाऊ इतिहासकारों को इससे क्या मतलब? उनका नैरेटिव जो उन्हें सेट करना था कर चुके जिसका खामियाजा हमारी नस्लें भुगत रही हैं पर, अब इसे देखकर उनकी आंखों से यह मुगलकाल का रंगीन चश्मा उतर जाए तो हम भी कहें कि, दाग अच्छे हैं ।
सुश्री इंदु सिंह
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)