मैं स्वच्छ सी थी,
द्वेष रहित कोमल सी
पर थोड़ी मैं अनजान भी
राही कोई खाली न जाता था
तट पर मेरे जो भी आता था
भिन्न हो कर, सबसे परे
मैं बस सुर अपना सजाती थी
बिन मांगे, निस्वार्थ सी
मैं बस बहते जाती थी
मैं रंगों से वाकिफ तो थी
पर हर चेहरे पर यहां
सौ रंग चढ़े मिले
मैं ढलती कैसे हर रंग में
लो देख लो, आज इस जग ने
मुझको हर अंग से बदरंग किया
मैं शुष्क सी, और नीरस हो गई
देखो कैसे सबने मुझको मीठे जल से रसहीन किया।
मन के तंग विचार हो
या पोपों का ढेर
मुझमें फेंक दिया सबकुछ
जैसे हर कचरे का मैं भार सहूं
निर्मलता का ह्रास किया
मेरी विशेषताओं का नाश किया
मैं निष्प्राण सी बेबस हो गई
देखो कैसे सबने मुझको मेरी नवीनता से यूं जीर्ण किया।
ना जाने कैसे विष है यहां
घुला हुआ इन फिजाओं में
हर एक वक्ष ने दम तोड़ा
विश्वास के मेरे किनारों पर
मैं हुई अकेली, निर्बल सी
ना मुझमें कोई जान बची
मेरी हर बूंद-बूंद को सबने
खाली किया, ना मुझमें मेरा अस्तित्व बचा
मैं निरा सी निरुत्तर हो गई
देखो कैसे सबने मुझको शुन्य सा निस्सार किया।
मेरा देने का स्वभाव था
और सब मुझसे लेते गए
मोल मेरा अनमोल हा, बस पन्नो पर
घूंट-घूंट मुझको पीते गए
निश्छलता क्या होती है?
ये शब्द पराया लगता है
मेरे त्याग भरे एसहास का
परिहास उड़ाया सबने इस कदर
मैं बंजर सी रिक्त हो गई
देखो कैसे सबने मुझको खालिस जल से तुच्छ किया।
मैं दोषों से भरी हूं अब
ना मुझमें कोई गुण रहा
रंग बदला, स्वरूप बदला
विशुद्धता की बखान बदल गई
वो आए शरण में कुछ इस तरह
हरण और शोषण की पहचान बदल गई
वो बूंदों की चोट, और
मेरी कल-कल करती अट्टाहास
कभी तीव्र ध्वनी से
कर्ण सबके भेदेगी
नजर ना आऊंगी मैं
बस बहते जाऊंगी मैं
पर नया मेरा रूप होगा
पुरानी नदी ना रह जाऊंगी मैं
मैं संतो के चोखट से तापकी का आश्रय बन गई
देखो कैसे सबने मुझको मुझसे ही हर लिया।