जब भी खीझ और हताशा के कारण विरोध अस्तित्व में आता है तब वो दृष्टिहीन होता है, इसी को अंधविरोध कहा गया। संसद के उच्च सदन में राष्ट्रपति द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के जब शपथ लेने का वक्त आया तब कांग्रेस और वामदलों के सदस्यों ने विरोध स्वरूप सदन से जाना ही उचित समझाए यह कितना औचित्यपूर्ण हैए इसे समझा जा सकता है। किसी भी नए सदस्य का तो स्वागत किया जाता हैए लेकिन जो उच्च सदन में हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया कि अपनी खास सोचकृसमझ के दायरे में प्रबुद्ध की श्रेणी में शुमार माननीय सामान्य शिष्टाचार से भी दूर होते जा रहे हैं। याद नहीं पड़ता किसी नामित सदस्य के प्रति उसके पहले दिन पर ही इतने ठंडे रुख का प्रदर्शन हुआ होगा। संवैधानिक संस्थाएं अपना काम करती हैं, हो सकता है किसी को काम के तरीके से असहमति भी हो, लेकिन मान रखा जाता है। जहां तक गोगोई का सवाला है तो यह सच है कि सर्वोच्च न्यायालय के जिन चार न्यायमूर्तियों ने प्रेस कांफ्रेंस करके न्यायपालिका में खत्म हो रही स्वतंत्रता का सवाल उठाया था और यह भी कहा था कि संविधान खतरे में है, तब प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा थे।
इस पहल में गोगोई भी एक अहम चेहरा थे। विपक्ष ने तब वैचारिक प्रतिरोध को लेकर सर्वोच्च अदालत में शायद पहली बार इस तरह के मंजर की खुलकर तारीफ करते हुए मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा था। दीपक मिश्रा के बाद कौनए इसको लेकर भी मोदी सरकार कटघरे में थी। पर गोगोई ही प्रधान न्यायाधीश बनाए गए। विपक्ष को लगाए उसके हिसाब से चीजें सामने आएंगी। पर राफेल मामले में विपक्ष को निराशा हाथ लगी। इसके बाद अयोध्या मसले पर भी मनचाहा निर्णय सामने नहीं आया। अब तो मोदी के दूसरे कार्यकाल में अनुच्छेद 370, 35-ए के खात्मे तथा नागरिकता संशोधन कानून बन जाने के खिलाफ दायर याचिकाओं पर नये प्रधान न्यायाधीश एसएस बोवडे के यहां से भी मनचाही राहत नहीं मिल पा रही।
इन सारी वजहों से विपक्ष के कुछ धड़े राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य के पीछे कुछ और देख-समझ रहे हैं। वैसे न्यायपालिका में नियुक्तियों और किसी सदस्य के रिटायरमेंट के बाद उसे सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित अवसर दिए जाने पर आजादी के बाद ही राजनीति होने लगी थी। सियासी दलों के बीच यह सवाल कमकृज्यादा उठता रहा है। पर जहां तक इस हालिया मनोनयन का प्रश्न है तो रंगनाथ मिश्र और विजय बहुगुणा राजनीतिक पदों से नवाजे जा चुके हैं। कई नाम और भी हैं जो समय-समय पर विरोध की भाषा में कहा जाए तो उपकृत होते रहे हैं। वैसे अच्छा होता पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई या सोचते-समझते हैं, इसको लेकर उनकी बात सुने बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी ही कही जाएगी।