कुछ लोग कष्ट के समय में भी संयमता से रहने की बजाय सीधे परिस्थितियों का दोषी ईश्वर को ठहराते हैं। जबकि मनुष्यता उसका नाम है जिसमें व्यति कष्ट सहकर भी दूसरों के लिए बलिदान करता है। दूसरों से कष्ट मिलने के बावजूद वह अपना धैर्य, संयम और संतोष नहीं खोता है। वह परोपकारी मार्ग पर चलता रहता है। यहां एक लघु कथा है जिससे संतोष की भावना प्रबल होती है। एक साधू अपने शिष्य के साथ नदी में स्नान कर रहे थे। तभी एक बिच्छू जल की धारा में बहता हुआ उधर आया और साधू ने उसे पानी से निकालने के लिए अपने हाथ पर लेने की कोशिश की। बिच्छू ने साधू के हाथ पर तेज डंक का प्रहार किया और साधू के हाथ से छूट कर दूर जा कर गिरा। तभी साधू ने दोबारा उसे हाथ में लेकर बचने की कोशिश की पर बिच्छू ने एक बार फिर से तेज डंक का प्रहार किया और साधू के हाथ से छूट कर दूर जा कर गिरा।
साधू ने उसे फिर बचने के लिए हाथ बढाया और बिच्छू ने फिर से डंक मारा और यह क्रम कई बार चला और अंतत: साधू ने बिच्छू को किनारे पर पहुंचा दिया। पर इस क्रम में साधू के हाथ में कम से कम 6-7 डंक लग चुके थे। एक शिष्य जो ये सारा उपक्रम देख रहा था, बोला, महाराज जब ये बिच्छू बार बार आपको डंक मार रहा था तो फिर आपने उसे इतने डंक खाकर यों पानी से बाहर निकाला? साधू बोले, बिच्छू का स्वभाव ही डंक मारने का होता है और वो अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकता। शिष्य बोला, तो फिर आप तो उसको बचाना छोड़ सकते थे। साधू बोले, जब बिच्छू जैसे प्राणी ने अपना स्वभाव नहीं छोड़ा तो फिर मैं यों साधू होकर अपना स्वभाव त्याग देता और बिच्छू को ना बचाता? कई बार हम सबके साथ भी कुछ ऐसा होता है बहुत से विपरीत स्वभाव के व्यतियों से हमारा सामना हो जाता है, उस परिस्थिति में वह व्यक्ति हमारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, परन्तु हम उसके साथ वह व्यवहार ना करें जो एक साधू को नहिं करना चाहिए साधू केवल वेष धारण नहिं साधू तो भाव है।
एम. रिजवी मैराज