डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था- मैं आजीवन प्रतिपक्ष का नेता रहूंगा! पऱ आज इसका उलटा हो रहा है। नेता आजीवन सत्तापक्ष से जुड़े रहना चाहते हैं। उनके लिए विपक्ष में होना अपमानजनक हो गया है। उनको लगता है कि जनता ने उन्हें कैसे हरा दिया! वे जनता को भी दोष देने लगे हैं और जनता के दिए जनादेश को पलटने के लिए तमाम तरह की तिकड़में करने लगे हैं। सबसे दुखद यह है कि इस तरह की तिकड़म को चाणक्य नीति और ऐसा करने वालों को चाणक्य कहा जाने लगा है। आज दिल्ली से लेकर राज्यों की राजधानियों और जिला स्तर पर भी छोटे छोटे सैकड़ों, हजारों चाणक्य घूम रहे हैं, जिनका एकमात्र लक्ष्य किसी न किसी तिकड़म के जरिए सत्ता हासिल करना होता है। वे चुनाव हारते ही पाला बदल कर सत्तापक्ष से जुड़ने की तिकड़म करने लगते हैं।
सत्ता की संभावना देखते ही ऐसे चाणक्य किस्म के नेताओं की अंतरात्मा जाग जाती है। उन्हें अपनी पार्टी में चारों तरफ कमियां ही कमियां नजर आने लगती है और वे फिर एक दिन दूसरी पार्टी में जाकर पवित्र हो जाते हैं। लोकतंत्र को बचा लेते हैं। अलग-अलग राज्यों में विधायकों की अंतरात्मा जिस तरह जग रही है उससे आशंकित कांग्रेस ने गुजरात में अपने 60 से ज्यादा विधायकों को अहमदाबाद से बाहर ले गई। कांग्रेस को आशंका थी कि अगर विधायक शहर में रहे तो राज्यसभा चुनाव से पहले उनकी अंतरात्मा जाग सकती है या वे किसी चाणक्य का शिकार हो सकते हैं।
यह कैसी विडंबना है कि दशकों तक विपक्ष में रही भाजपा को अब विपक्ष में रहना सबसे ज्यादा अपमानजनक लग रहा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में उसके नेताओं की बेचैनी देखते बन रही है। वे हर तरह की तिकड़म के जरिए अपनी विरोधी पार्टियों के विधायकों की अंतरात्मा जगाने के प्रयास कर रहे हैं। सवाल है कि तीनों राज्यों में भाजपा को हराने के जनादेश के बावजूद नेताओं को इसी विधानसभा में सरकार में आ जाने का भरोसा कहां से बना है? यह भरोसा बिहार, गोवा, मणिपुर जैसे राज्यों के अनुभवों से बना है।
बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की निर्णायक हार हुई थी। पर उसने जीते हुए गठबंधन के एक सहयोगी को तोड़ दिया और सरकार में शामिल हो गई। इसी तरह गोवा में भाजपा की निर्णायक हार हुई थी पर उसने इधर उधर से तोड़फोड़ करके अपनी सरकार बना ली। तभी मध्य प्रदेश, कर्नाटक और राजस्थान के नेताओं को भी लग रहे है कि उनके राष्ट्रीय चाणक्य उनको ज्यादा समय तक विपक्ष में नहीं रहने देंगे।
यह एक कमाल का चलन शुरू हुआ है कि जो भी राजनीति में आ रहा है या पहले से है उसे सत्ता में ही रहना है। ऐसा लग रहा है कि सत्ता में रह कर ही वह देश, समाज या मानवता की सेवा कर सकता है। जबकि हकीकत यह है कि लोकतंत्र, देश और समाज के लिए जितनी जरूरी सरकार है उतना ही जरूरी मजबूत विपक्ष भी है। पर विपक्ष में कोई नहीं रहना चाहता है। सबको सत्ता चाहिए।
कांग्रेस को तो वैसे भी विपक्ष में रहने की आदत नहीं है। वह या तो सत्ता में रहती है या सत्ता के इंतजार में रहती है। सत्ता के इंतजार के दौरान वह मजबूत विपक्ष की भूमिका भी नहीं निभाती है। यह अपने आप में लोकतंत्र के लिए बड़े अपमान की बात है। कांग्रेस के लोकसभा में एक सौ से ज्यादा सांसद होते थे तो सदन की नेता सोनिया गांधी होती थीं पर अब दो लोकसभाओं में यह संख्या 44 और 52 हुई तो सोनिया या राहुल में से कोई भी सदन का नेता नहीं बना। जब उन्हें विपक्ष में रहना अपमानजनक लग रहा है तो उनकी पार्टी के नेताओं को कैसे नहीं लगेगा? चाहे कांग्रेस और भाजपा हों या राजद, सपा और दूसरी कोई क्षेत्रीय पार्टी है सबको विपक्ष में रहना बुरा लग रहा है।
अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं