बुधवार को विपक्षी दलों ने एक बैठक में पुलवामा के शहीदों को श्रद्धांजलि दी और आतंकवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध में भारत सरकार संग एकजुटता की बात दोहराई। लेकिन इस बात पर आपत्ति जताई कि मोदी सरकार मौजूदा परिस्थितियों का चुनावी इस्तेमाल कर रही है। यह सच है कि पुलवामा आतंकी हमले के बाद देश के भीतर पाकिस्तान से आप-पार की बहस शुरू हो गई है। एक तरह से भारत-पाक के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो चुके हैं, तब सबकी नजर स्वाभाविक रूप से मोदी सरकार पर है। बीते तीन दशकों से आतंकवाद का दंश झेल रहे देश के भीरत पाकिस्तान को सबक सिखाने की मंशा को जो दिशा मिली है। उससे बाकी मुद्दे गौण हो गए हैं। फिलहाल जिसकी चर्चा है और जो सामने राजनीतिक नेतृत्व है उसकी अहमियत स्वाभाविक रूप से बढ़ गई है।
यही विपक्ष की परेशानी है। एक तरफ आम चुनाव की तैयारी है। विभिन्न दलों के नेतागण उसके लिए जनसभाएं कर रहे हैं। दूसरी ओर युद्ध की स्थिति में, देश अहम हो गया है। किसी ने ठीक ही कहा है कि युद्ध और आर्थिक संकट के मुद्दे पर लोग स्वतः एकजुट दिखाई देते हैं। यही कारण है कि चुनावी चर्चा पर युद्ध चर्चा खास हो गई है। बेरोजगारी के सवाल भ्रष्टाचार के माले और किसानों की बदहाली फिलहाल नापेथ्य में है जबकि इस सवालों पर कुछेक बरसों से विपक्ष मोदी सरकार को घेर रहा था। खासकर किसान आंदोलनों के कारण मोदी सरकार बैकफुट पर आ गई थी और उसे आनन-फानन में 6 हजार रुपये वार्षिक आमदनी की घोषणा करनी पड़ी। मुद्दों की गंभीरता का अंदाजा इससे लगया जा सकता है कि विपक्ष में मान लिया था कि 2019 की लड़ाई उसके लिए औपचारिकता मात्र रह गयी है।
राहुल गांधी, ममता बनर्जी, मायावती और अखिलेश यादव के बयान इसकी बानगी हैं। पर अब नई परिस्थिति में ऐसा माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में मोदी की भाजपा को लाभ मिल सकता है। दूसरे मुद्दों को अब उतना कैनवास नहीं मिलने वाला। इसीलिए विपक्ष को सता रहा डर वाजिब है। भारत की तरफ से पाक स्थिति आतंकी ठिकानों पर फौजी कार्रवाई के बाद से अपने किसी भी चुनावी सभा में मोदी की तरफ से बार-बार यही उद्धोष किया जा रहा है। देश नहीं झुकने दूंगा। भाजपा का राष्ट्रवाद मौजूदा परिस्थितियों में लोगों को रास आ सकता है। यह चिंता विपक्ष के लिए बड़ी है पर ऐसी स्थिति भी नहीं है कि उसका खुले तौर पर विरोध किया जा सके। जाहिर है इस ऊहापोह की स्थिति से विपक्ष की लड़ाई मोदी सरकार के खिलाफ कमजोर पड़ सकती है और यह यथार्थ है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि युद्ध परिस्थिति में खासकर जब बढ़ता हो तब लाभ जो सत्ता में होता है।
उसे मिलता है। याद कीजिए 1971 का भारत-पाक युद्ध। तब सत्ता में इंदिरा गांधी थीं। उनके राजनीतिक नेतृत्व और भारतीय फौज के अदम्य साहस की बदौलत पाकिस्तान पर सिर्फ बढ़त ही हासिल नहीं हुई अपितु बांग्लादेश के रूप में एक नया मुल्क वजूद में आया। इससे पाकिस्तान की ताकत आधी रह गयी। जाहिर है इतनी बड़ी कामयाबी का श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मिलना था और मिला भी। अंतरराष्ट्रीय जगत में भी भारत की धमक बढ़ी और महसूस की गयी। खुद इंदिरा गांधी को एक अलग छवि के रूप पहचान मिली आम चुनाव में जो लाभ मिला सो अलग। लोकतांत्रिक राजनीति में यही होता है जो सत्ता में होते हैं उन्हें सफलता और विफलता दोनों ही जिम्मेदारी लेनी पड़ती है।।