विचार, सिद्धांत सारे ताक पर!

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पहला कारण टिकट बंटवारे के लिए चुनाव जीतने की क्षमता को एकमात्र पैमाना बनाना और दूसरा खैरात बांट कर परोक्ष या प्रत्यक्ष रुप से मतदाताओं का वोट हासिल करने की सोच। इन दो कारणों ने सबसे ज्यादा चुनाव को प्रभावित किया है। भारतीय राजनीति में जितनी सारी बुराइयां आज दिख रही हैं वह सब इन दो कारणों से हैं।

भारतीय राजनीति हर चुनाव के साथ विचार और सिद्धांत से थोड़ी दूर होती जा रही है। इसके दो बहुत स्पष्ट कारण दिखते हैं। पहला कारण टिकट बंटवारे के लिए चुनाव जीतने की क्षमता को एकमात्र पैमाना बनाना और दूसरा खैरात बांट कर परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं का वोट हासिल करने की सोच। इन दो कारणों से सबसे ज्यादा चुनाव को प्रभावित किया है। भारतीय राजनीति में जितनी सारी बुराइंया आज दिख रही हैं वह सब इन दो कारणों से हैं।

जब तक राजनीति विचारधारा और सिद्धातों पर आधारित थी या कम से कम दिखावे के लिए भी पार्टियां इनकी बात करती थीं तब तक बहुत हद तक राजनीति साफ सुथरी थी। जनता के बीच काम करने वाले लोग टिकट पाते थे और चुने जाते थे। भारतीय संसद के दोनों सदन तब करोड़पतियों अरबपतियों की ऐशगाह नहीं बने थे। कारपोरेट भारतीय राजनीति को बहुत प्रभावित नहीं कर पाता था। लोगों को नेताओं के चेहरे पहचाने होते थे कि अमुक नेता अमुक पार्टी का है। अब हर चुनाव के समय अनेकों चेहरे पाला बदल लेते हैं। पार्टियां अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं और नेताओं की जगह दूसरी पार्टियों से या दूसरे क्षेत्र से नेता लाकर उनको चुनाव लड़ाती हैं। उनमें सिर्फ एक योग्यता देखी जाती है कि वे चुनाव जीत सकते हैं या नहीं। अगर चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता है तो वो चाहे किसी भी पृष्ठभूमि के हों उनको टिकट मिल जाती है।

जब तक भारत में राजनीति पार्टियां सिद्धांत व विचार की राजनीति करती थी तब तक उनको जातीय समीकरण बैठाने की ज्यादा चिंता नहीं होती थी और न इस बात की प्राथमिकता होती थी कि उसका उम्मीदवार करोड़पति, अरबपति हो। नब्बे के दशक में जब जाति आधारित पार्टियों का उदय हुआ उसी समय कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टियों के नेता भी सोशल इंजीनियरिंग करने लगे और तब से राजनीति भ्रष्ट होती चली गई सोशल इंजीनियरिंग के चक्कर में पार्टियां जातीय नेताओं को तरजीह देने लगीं। टिकट बंटवारे का एक आधार यह भी हो गया कि किस सीट पर किस जाति का कितना वोट है और उस वोट को अपनी ओर खींचने की क्षमता जाति के किस नेता में है।

जातिवाद के अलावा राजनीति की दूसरी बुराई धनबल की है। यह भी हर हाल में चुनाव जीतने की सोच से जुड़ा है। यह कई आंकड़ो से पमाणित है कि करोड़पति उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की संभावना कार्यकर्ताओं के चुनाव जीतने की संभावना ज्यादा रहती है। इसलिए पार्टियां ने सामान्य कार्यकर्ताओं की बजाय करोड़पतियों को उम्मीदवार बनाना शुरु किया। तीसरी बुराई आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं की है। पार्टियों ने चुनाव जीतने की क्षमता वाले नेताओं को तरजीह देनी शुरु की। आज किसी भी पार्टी के लिए ऐसे नेताओं की अनदेखी संभव नहीं है। वैसे तो किसी भी चुनाव को मानक बना कर उसके आधार पर विश्लेषण किया जा सकता है। इस बार के चुनाव में भी यह साफ दिख रहा है कि पार्टियों ने चुनाव जीतने की क्षमता को टिकट देने का एकमात्र पैमाना बनाया है। तभी कोई फिल्मी सितारों को चुनाव मैदान में उतार रहा है तो कोई दूसरी पार्टियों से नेता तोड़ कर ला रहा है तो कोई अपने नेताओं की सीट बदल रहा है। हेमामालिनी को याद नहीं है कि उन्होंने पांच साल तक मथुरा में क्या काम किया है।

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