वहां बुद्धि, यहां कौवा काला !

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सुबह दिमाग को ‘द इकॉनोमिस्ट’ से चीन, ब्रिटेन और अमेरिका पर खुराक मिली। फिर सोचने लगा पत्रिका पर। लंदन से प्रकाशित इस पत्रिका को मैं 1976 से देखता-पढ़ता आ रहा हूं। इसके संपादकीय पढ़ कर मेरी वैश्विक समझदारी पकी। यह पत्रिका 1976 में भी बौद्धिक खुराक की विविधता के सार्थक सच्चे बीज लिए हुए थी और आज भी लिए हुए है। ऐसा नहीं कि पत्रिका मुझे हमेशा ही सही लगती रही हो लेकिन इसके संपादकीय, विश्लेषण, जानकारियों, रिपोर्ट, लेख सोचने को हमेशा मजबूर करते रहे तो यह आश्चर्य बार-बार हुआ कि इसके जो संपादक-पत्रकार-विचारक हैं वे क्या खूब महीन, गहरी बात पकड़ अपने विचार पकाते हैं! इंसान के आधुनिक विकास, उसकी प्रवृतियों, दुनिया के चाल-चलन का बेबाक विश्लेषण करते हुए ये कैसे अपने सत्य पर डटे रहते हैं! इन्हें बुद्धि के हर कौतुक की कैसी विविधताएं मिली हैं और कितने ऐसे साधन प्राप्त हैं, जो दुनिया के हर कोने, उसकी हर विविधता, हर समस्या को ये बारीकी से जांच अपना विश्लेषण बनाते हुए देश-दुनिया को साक्षर, ज्ञानवान बना रहे हैं! दशकों-सदियों से चला आ रहा बुद्धि का इनका यह महायज्ञ वाह! क्या खूब। कैसे हैं वे लोग और कैसे हैं हम लोग!

मैं बहुत हैरान होता हूं सोचते हुए कि दुनिया जिन बौद्धिक गंगोत्रियों से धन्य है वे बौद्धिक थिंक टैंक, वे मीडिया संस्थान भला इतने दीर्घायु कैसे हुए और कैसे ये लगातार साफ-सुथरी नौजवान उर्वरता के साथ हैं? ये क्यों नहीं प्रदूषित, गुलाम, गिरवी हुए? बात सिर्फ ‘द इकॉनोमिस्ट’ की ही नहीं है। ब्रिटेन का ‘द गार्जियन’, ‘टाइम्स’, ‘इंडिपेंडेंट’, ‘न्यू स्टेट्समैन’ या अमेरिका का ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘वाशिंगटन पोस्ट’, ‘फॉरेन अफेयर’, ‘एटलांटिक’ या फ्रांस का ‘ल मोंद’ से लेकर इन देशों के ‘बीबीसी’, ‘नेशनल ज्योग्राफिक’ आदि चैनल सभी तो बौद्धिक अनुष्ठान में न जाने कब से जुटे हुए हैं। ये संस्थान ही इन देशों के दिमाग का वह केमिकल हैं, जिससे बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान-सत्यशोधन में सतत दौड़ी रहती है।

वक्त अब डिजिटल-सोशल मीडिया का है। अमेरिका-यूरोप में कई पत्र-पत्रिकाएं खत्म हुई हैं लेकिन बावजूद इसके ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी से ले कर अमेरिका सभी में वे मीडिया संस्थान जस के तस हैं, जिनसे देश को, देश के प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों, नियंताओं, व्यवस्था और जनता को ज्ञान, सूचना, विचार, बुद्धि प्राप्त होती है। लंदन में अखबारों के दफ्तरों की फ्लीट स्ट्रीट भले उजड़ गई हो लेकिन कंजरवेटिव विचार, उसकी धारा की गंगा वाला ‘डेली मेल’ भी जिंदा है तो लिबरल-समाजवादी ‘द गार्जियन’ पाठकों के चंदे से अभी भी चल रहा हैं! और ‘द इकॉनोमिस्ट’, ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘ल मोंद’ आदि का तो कहना ही क्या!

और हम-आप भारत के 138 करोड़ लोग किस दशा में हैं? 138 करोड़ लोगों में से कितने हजार या कितने लाख लोग (हां, में हजार-लाख की संख्या ही मानता हूं) होंगे जो सुबह अखबार में संपादकीय व संपादकीय पेज के लेख याकि बुद्धि, ज्ञान, सत्य को बेकरारी से पढ़ने की ललक लिए हुए होते हैं?यह विचार भी हो कि भारत में अंग्रेजी, हिंदी, भारतीय भाषाओं के सौ-सौ साल पुराने अखबारों, मीडिया संस्थानों के प्रकाशकों, संपादकों-विचारकों ने सूचना, बुद्धिमत्ता, सत्यवादिता का क्या ऐसा कोई प्रण लिया हुआ है, जैसा सन 1843 में बने ‘द इकॉनोमिस्ट’ के इस ध्येय में प्रकट है कि वह इसलिए है ताकि बुद्धिमत्ता (इंटेलीजेंस) की घनघोर प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बन आगे बढ़ने (फारवर्ड) में मददगार हो क्योंकि बेकार की, भयजनित अज्ञानता प्रगति को रोकती है! सोचें, पौने दो सौ साल पहले के इस संकल्प में शुरू पत्रिका के इन शब्दों की गढ़ाई भले आज अटपटी लगे लेकिन लोकतंत्र और पृथ्वी के पौने आठ अरब लोगों के पिछले दो सौ सालों के विकास का बीज मंत्र यहीं था, है और रहेगा कि बुद्धि और बुद्धीमत्ता के सत्य से मानवता है। वह उसी से बढ़ी है, बढ़ रही है और भविष्य में भी बढ़ेगी। एकमेव जरूरत है बुद्धिबल की घोर प्रतिस्पर्धा में अपने आपको झोंकना, निखारना, बनाना। यह तब संभव है जब भय, भक्ति और मूर्खताओं की अज्ञानता से इंसान अपने को बचाए रखे!

मैं सुबह चीन, ब्रिटेन और अमेरिका को लेकर ‘द इकॉनोमिस्ट’ के तीन संपादकियों पर विचार करने लगा तो तीनों में वर्तमान के सत्य में भविष्य की दृष्टि थी। संयोग से अमेरिका के अगले राष्ट्रपति चुनाव और ब्रिटेन के भविष्य पर विचार में भारतीय मूल के दो लोगों पर संपादकीय में फोकस था। एक कमला हैरिस और दूसरे ब्रिटेन में भारतीय मूल के वित्त मंत्री ऋषि सुनाक पर। कमला पर विवेचना थी कि चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत की सूरत में अमेरिका का क्या बनेगा? वहीं कोविड संकट में ब्रितानी आर्थिकी में 22 प्रतिशत रिकार्ड गिरावट की हकीकत पर लंदन की इस पत्रिका ने ऋषि सुनाक की काबलियत पर भरोसा करते हुए विकल्प बताएं कि क्या कुछ होना चाहिए!

तय मानें इन संपादकियों को ब्रिटेन के पीएम, ऋषि सुनाक मंत्री-अफसर पढ़ेंगे तो अमेरिका में कमला हैरिस भी पढ़ेंगी और चीन की कवर स्टोरी में उस पर लिखा संपादकीय दुनिया के असंख्य सुधीजनों की नजरों से गुजरेगा! क्यों? इसलिए कि इन सबके लिए बुद्धि, बुद्धिमत्ता, सत्य का गहन मतलब है। ये इसी के बीज से बने हैं और लगातार नई-नई फसल ले रहे हैं। थिंक टैंक याकि पत्र-पत्रिकाओं, विचार के संस्थानों के बिना अमेरिका, ब्रिटेन में काम नहीं चलता है। और तो और रूस-चीन जैसे तानाशाह-प्रोपेगेंडा नैरेटिव वाले देशों में भी राजनीति से इतर, जितने विषय है उनमें बुद्धि, थिंक टैंकों को भरपूर महत्व है। चीन का सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’अब संपादकीय टिप्पणियों में अधिक बेबाक लगता है बनिस्पत भारत में मौजूदा वक्त के गोदी मीडिया के! हमारे मीडिया में जनजीवन से जुड़ी छोटी-छोटी सच्चाई पर भी आज बेबाकी से रिपोर्ट, विवेचना की हिम्मत नहीं है। हमारे यहां न बुद्धि का मतलब है न सत्य का और न काबलियत का।

सोचें, हमारे यहां राष्ट्रपति कोविंद का पांच सालों में क्या मतलब रहा है जबकि अमेरिका में कमला हैरिस से अगली प्रेसिडेंसी, बाइडन का प्रशासन कैसे प्रभावित होगा, यह समझा जा रहा है, ऐसा होना संभव माना जा रहा है तो इसलिए क्योंकि अमेरिका में राष्ट्रपति भगवान का अवतार नहीं होता। राष्ट्रपति अकेले सरकार का गोवर्धन पर्वत उठाए हुए नहीं है? सोचें, भारत में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की काबलियत पर क्या तो चर्चा है और क्या फोकस है। जबकि लंदन का ‘द इकॉनोमिस्ट’ ब्रितानी इकॉनोमी को ले कर ऋषि सुनाक से अपेक्षा कर रहा है और सुझाव दे रहा है कि फलां-फलां विकल्प हैं। कंजरवेटिव पार्टी को बूढ़े लोगों की चिंता से बाहर करवा कर वह विकास को लौटाने के विचार दे रहा है। वहां भारतवंशी रोल लिए हुए, काबिल हैं जबकि भारत में राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, वित्त मंत्री हों या एक्सवाईजेड सभी का मतलब मंदिर में आरती उतारने का है। सभी को प्रभु की कृपा में जीवन गुजारना है।

कितनी गजब बात है जो भारत में सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री अवतार (नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक) के आगे राष्ट्रपति और वित्त मंत्री का क्या अर्थ हुआ है या है और अमेरिका में विदेश से आ कर बसी भारतीय मूल की यदि उप राष्ट्रपति बनी तो क्या होगा और ऋषि सुनाक के वित्त मंत्री रहते हुए ब्रितानी आर्थिकी में क्या संभव है, इस पर गंभीरता से विचार है। क्या यह फर्क कोई रिएलिटी उभारता है?

हां, रिएलिटी यह कि उन देशों में बुद्धि, बुद्धि की स्वतंत्रता से अवसर होता है। उस अवसर से वहां व्यक्ति बना होता है, वह काबिल-समर्थ होता है। इसलिए कमला हैरिस भी कमाल करेंगी तो ऋषि सुनाक भी करेंगे और ऐसे असंख्य मूल भारतवंशी इन बुद्धिमना देशों में कमाल दिखाते हुए दशकों से हैं। इन देशों में बुद्धि, इंटेलीजेंस के ऑक्सफोर्ड-हार्वर्ड, ‘द इकॉनोमिस्ट’, ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’, थिंक टैंक आदि की ज्वाला क्योंकि सतत-अक्षत है तो वहां पत्थर भी पारस बनेगा जबकि अपने यहां सोना हो जाएगा मिट्टी। दो-तीन पीढ़ियों के मीडिया संस्थान भी गोदी में जा बैठेंगे। हर कोई कीर्तन करते हुए देवीलाल-ओमप्रकाश चौटाला के उन वाक्यों की याद करवाएगा कि ये बुद्धि वाले काले कौवे हैं और तुम लोगों का अखबार तो कल सुबहपोटी साफ करने के लिए औरतों के काम आएगा। हां, चौधरी देवीलाल से मैंने यह वाक्य सत्ता की मदांधता में सुना था और तब भी मैंने सोचा था कि भारत को यह कौन सा श्राप है, जो बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान से ऐसा वैर! देवीलाल, चौटाला से नरेंद्र मोदी के अब तक के सफर में फर्क सिर्फ इतना है कि चौधरी लोग अखबार की उम्र चौबीस घंटे तो मानते थे, बुद्धि को काला कौवा तो बताते थे जबकि भारत में आज का समय वह शून्यता लिए हुए है कि अखबार और बुद्धि किस चिड़िया का नाम? लंगूरों की गुरूता में भला इनका क्या मोल!

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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