वजीफे पर सियासत

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अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार पांच करोड़ अल्पसंख्यक छात्रों को वजीफा देने जा रही है। इसके लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय ने अपले पांच वर्ष का खाका खींच लिया है। खास बात ये है कि इस योजना में 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी लड़कियों की होगी। यह कदम नि:संदेह स्वागतयोग्य है। पर सियासी विरोधाभास ये है कि इस योजना को लेकर अभी से नीयत को लेकर सवाल उठने लगे हैं। जबकि यह शीशे की तरह साफ है कि शिक्षा के क्षेत्र में अल्पसंगयक बच्चों की स्थिति बहुत दयनीय है। खासकर मुस्लिम समुदाय में देश के अन्य समुदायों के मुकाबले शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसा समझा जाता है कि दीनी तालीम पर इस तबके का खासा जोर होता है। मदरसों में आधुनिक शिक्षा की जरूरत को महसूस करते हुए सरकार चाहती है कि मदरसा शिक्षकों को नई जरूरत के हिसाब से प्रशिक्षण भी दिया जाए।

इस तबके में ड्राप आउट्स के मामले ज्यादा हैं। उच्च शिक्षा की तस्वीर बहुत अच्छी नहीं है। इसको बदलने की गरज से सरकार अगले महीने से देश भर के मदरसों में मुख्य धारा की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए मदरसा शिक्षकों को विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों से प्रशिक्षण दिलाएगी। पहले चरण में 60 अल्पसंगयक बहुल जिलों का चयन किया जाएगा। हालांकि इस योजना की बुनियाद पहले कार्यकाल में रखी गई थी। तक रीबन ढाई सौ मदरसों के शिक्षकों को आधुनिक शिक्षण के योग्य बनाने का प्रशिक्षण दिया गया था। सरकार चाहती है कि एक हाथ में कुरान तो दूसरे हाथ में क कम्प्यूटर हो। इस महत्वाकांक्षी और सर्वाधिक पिछड़ी गिनी जाने वाली अल्पसंख्यक जमात के हित की योजना को लेकर तुष्टीकरण का आरोप भी चस्पा किया जा रहा है।

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसे मजहबी रंग देने की कोशिश भी हो रही है, हालांकि आम मुस्लिम तबका को नीयत में कोई खोट नहीं दिखता। इसलिए कि वजीफा इस तबके की जरूरत है। पैसे के अभाव में बच्चे-बच्चियां स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते हैं। कॉलेज और विश्वविद्यालय तो सपने की तरह होता है। इसका चिंताजनक पहलू यह है कि शहरी क्षेत्रों में भी इस तबके के ज्यादातर बच्चे मुख्य धारा की शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। सच्चरक मेटी की रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों की वास्तविक हालत के बारे में बहुत कुछ है। उसमें शिक्षा और नौकरी के सिलसिले में जो विवरण हैं, वे यह बताने को काफी हैं कि बीते दशकों में इस जमात की सियासी अहमियत तो बढ़ी, लेकिन आर्थिक -सामाजिक पैमाने पर दलितों से भी बदतर स्थिति बनी रही। इस बाबत समेकित योजनाओं की जरूरत थी पर सांकेतिक चीजों पर जोर दिया जाता रहा। उच्च शिक्षा में 6 फीसदी हिस्सेदारी कहीं ना कहीं देश के विकास को भी प्रभावित करती है। इसीलिए शायद यह विशेष पहल शुरू हुई है।

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