वक्त ने किया क्या हंसी सितम

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2014 से 2019 आते आते बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल में डाले जा चुके वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी के लिए बीजेपी भी बदल गई है और गांधीनगर भी। गांधीनगर की सीट बीजेपी में आडवाणी युग के पूरी तरह अंत होने और अमित शाह के नए आयरनमैन बनने की कहानी है। जिस गांधीनगर सीट से आडवाणी 6 बार लोकसभा में पहुंचे, उस सीट पर बीजेपी ने अपने सरदार को उतारा है।

शनिवार को जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पर्चा दाखिल किया तो गांधीनगर सीट का इतिहास फ्लैशबैक में 28 साल पीछे चला गया। तब पहली बार बीजेपी के तब के सबसे प्रभावशाली नेता और अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने गांधीनगर से चुनाव जीता था। उस वक्त अमित शाह ही उनके चुनाव प्रचार के प्रभावी थे लेकिन अब वक्त शाह के पीछे पीछे चल रहा है।

2014 से 2019 आते आते बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल में डाले जा चुके वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी के लिए बीजेपी भी बदल गई है और गांधीनगर भी। गांधीनगर की सीट बीजेपी में आडवाणी युग के पूरी तरह अंत होने और अमित शाह के नए आयरनमैन बनने की कहानी है। जिस गांधीनगर सीट से आडवाणी 6 बार लोकसभा में पहुंचे, उस सीट पर बीजेपी ने अपने सरदार को उतारा है। बीजेपी के लिए गांधीनगर सीट सबसे भरोसेमंद और जिताऊ सीट मानी जाती है इसीलिए 1991 में यहां से एक बार आडवाणी ने चुनाव लड़ा तो फिर इसी सीट का होकर रह गए।

1989 में पहली बार आडवाणी ने नई दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता, लेकिन 1991 में कांग्रेस ने नई दिल्ली सीट पर उनके खिलाफ सुपर स्टार रहे राजेश खन्ना को उतार दिया। बीजेपी के लिए वो सीट फंसती नजर आ रही थी, लेकिन आडवाणी तब तक सोमनाथ से अयोध्या के लिए निकली अपनी राम रथ यात्रा और गिरफ्तारी से हिन्दू ह्रदय सम्राट बन चुके थे और मोदी उनके सबसे करीबी लेफ्टिनेट। गांधीनगर की सीट पर उस वक्त शंकर सिंह वाघेला सांसद थे। मोदी की सलाह पर आडवाणी गाधीनगर लड़ने पहुंचे। वाघेला को सीट खाली करनी पड़ी। उनका पर्चा भरते वक्त साथ में तब मोदी भी थे और अमित शाह भी। अमित शाह ने ही आडवाणी के चुनाव प्रचार का जिम्मा संभाला।

अब इतिहास बिल्कुल बदल चुका है। बीजेपी ने एक हफ्ता पहले जब आडवाणी का पत्ता काटा तो उनको शायद इसका पता भी नहीं था। 2001 में जब मोदी एक बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने, तो फिर पीछे मुडकर नहीं देखे। ना सिर्फ गुजरात में बीजेपी और सरकार उनके इशारों पर चलने लगी बल्कि दिल्ली दरबार तक उनकी धमक और हनक बढ़ती गई। 2013 में मोदी को बीजेपी के चुनाव प्रचार के प्रमुख और प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने में आडवाणी ने अडंगा भी लगाया। तब 2014 के चुनाव में आडवाणी को टिकट मिलने में बहुत आनाकानी हुई थी। लेतिन तब भी उनका कुछ असर था, लेकिन 26 मई 2014 को देश की बागडोर प्रधामनंत्री मोदी के हाथ में आई और कुछ दिनों बाद बीजेपी की बादडोर मोदी के सबसे करीबी लेफ्टिनेंट अमित शाह को बनाया हया। फिर मोदी शाह की जोड़ी का असर चमकता गया और आडवाणी पहले पार्टी और फिर राजनीति के नेपथ्य में डूबते चले गए। अटल-अडवाणी के दौर से निकलकर बीजेपी मोदी-शाह के प्रभावमंडल में आ गयी। अब आडवाणी की जगह गांदीनगर से अमित शाह के लड़ने से इतना तो साफ है कि हार्इप्रोफाइल सीट की चर्चा आगे भी सुर्खियां बटोरती रहेगी।

गोपी घांघर
लेखिका पत्रकार है।

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