रेडियो स्टेशन और ‘निराला’ की शक्तिपूजा

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वर्ष 1938 में दो अप्रैल को लखनऊ में रेडियो स्टेशन खुला। थोड़े ही अंतराल के बाद उसने हिंदी साहित्य का एक कार्यक्रम शुरू करने की सोची तो उसे हिंदीसेवियों की गंभीर बेरुखी का सामना करना पड़ा। दरअसल, कार्यकम की गरिमा बढ़ाने के लिए वह उसके संयोजन का प्रभार लखनऊ के किसी वरिष्ठ साहित्यकार को सौंपना चाहता था, लेकिन अमृतलाल नागर से लेकर भगवतीचरण वर्मा तक ने उससे हाथ जोड़ लिये। कारण यह कि उन दिनों रेडियो पर हिंदी के बजाय हिंदुस्तानी का जोर था और ‘हिंदी वाले’ इसे हजम नहीं कर पाते थे। आखिरकार रेडियो ने अवधी कवि बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ (1898-1943) से निवेदन किया। पढ़ीस ने बापू के आह्वान पर अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी और सीतापुर स्थित अपने गांव में आम लोगों के बीच उन्हीं की तरह रहते और ‘अस्पृश्यों’ को शिक्षित करते। उन्होंने तत्कालीन कुलीन ब्राह्मणों में चली आती इस रूढ़ि को सायास तोड़ डाला था कि उन्हें हल की मुठिया नहीं पकड़नी चाहिए। 1933 में उनका काव्य-संग्रह ‘चकल्लस’ प्रकाशित हुआ तो उनके समकालीन महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने उसे हिंदी के तमाम सफल काव्यों से बढ़कर बताया था।

रेडियो स्टेशन से जुड़ाव के कारण पढ़ीस इनकार नहीं कर सके और जिम्मेदारी स्वीकार ली, तो तय किया कि वे कार्यकम का ऐसा धमाकेदार आगाज करेंगे कि श्रोता मुरीद हो जाएंगे। उन दिनों के हिंदी काव्याकाश में ‘निराला’ की धूम थी, इसलिए उन्होंने निराला के काव्यपाठ से ही कार्यक्रम के श्रीगणेश की योजना बनाई। लेकिन निराला ने यह कहते हुए उनकी प्रार्थना ठुकरा दी कि जिस रेडियो स्टेशन पर शहजादा राम व उनकी बेगम सीता जलवा अफरोज और बादशाह दुष्यंत परकट हुआ करते हैं, वहां मेरी कविता भला कौन सुनेगा लेकिन पढ़ीस ने हार नहीं मानी और कहा, ‘पंडित जी, आप अपने फैसले पर एक बार फिर से सोच लीजिए। रेडियो अब धीरे-धीरे बहुतों के पास पहुंचने लगा है। उस पर एक साथ लाखों लोग आपकी वाणी सुन सकेंगे।’ निराला ने जाने क्या सोचा, हामी भर दी और ठाठ से इक्के पर बैठकर रेडियो स्टेशन जा पहुंचे। स्टेशन डायरेक्टर ने उन्हें ससम्मान अतिथि कक्ष में बैठाया तो खुश भी कुछ कम नहीं हुए। पढ़ीस को बताया कि वे अपनी ‘राम की शक्तिपूजा’ कविता का पाठ करेंगे। पढ़ीस स्वयं भी यही चाहते थे। लेकिन इससे पहले कि निराला को काव्यपाठ के लिए स्टूडियो ले जाया जाता, एक अनाउंसर की महत्वाकांक्षा जाग गई। उसने पढ़ीस से कहा कि निराला जैसे महाकवि के रेडियो पर पहले काव्यपाठ का अनाउंसमेंट वही करेगा। यह अनाउंसर रेडियो के एक बड़े अधिकारी का चहेता था, इसलिए पढ़ीस उसको मना नहीं कर सके।

भले ही वह हिंदी से अनभिज्ञ था। अनाउंसर ने पढ़ीस की हिंदी में लिखी स्क्रिप्ट रोमन अक्षरों में लिख ली और निराला को लेकर स्टूडियो जा पहुंचा। तब रिकॉर्डिंग करके प्रसारण की सुविधा नहीं थी। स्टूडियो में प्रसारक व अनाउंसर साथ बैठते और एक ही माइक से बोलते थे। खैर, जैसे ही वक्त हुआ, अनाउंसर ने अनाउंस किया-‘अब होगा कबीता पाठ। कबी हैं सूर्याकांता त्रिपाठा निराली।’ फिर क्या था, बगल में बैठे निराला ने आपा खोकर अनाउंसर की गरदन इस तरह जकड़ ली कि रेडियो पर ‘राम की शक्तिपूजा’ के बजाय उसकी घुटी-घुटी सांसें गूंजने लगीं। कार्यकम सहायक ने यह दृश्य देखा तो उसके भी हाथ-पांव फूल गए। उसने कंट्रोलरूम का संपर्क स्टूडियो से काटकर फिलर बजाने को कहा और पढ़ीस को सूचित किया। पढ़ीस भागे-भागे आए और निराला से बहुत अनुनय-विनय करके अनाउंसर की गरदन उनके पंजे से छुड़ाई। निवेदन किया कि वे थोड़ी देर स्टेशन डायरेक्टर के पास बैठें। फिर वे सुरुचिपूर्ण नए अनाउंसमेंट के साथ उनके काव्यपाठ की व्यवस्था करा देंगे। लेकिन निराला सातवें आसमान से नीचे नहीं उतरे। बोले, ‘पढ़ीस, पुरानी मित्रता है, इसलिए तुम्हें छोड़ दे रहा हूं। लेकिन स्टेशन डायरेक्टर के पास ले चलोगे तो उनका भी इस उद्घोषक जैसा ही हाल करूंगा।’आगे के हाल की कल्पना ही की जा सकती है। हां, उस रोज न लखनऊ रेडियो स्टेशन अपना पहला हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर पाया, न निराला उस पर अपना पहला काव्यपाठ कर सके।

कृष्ण प्रताप सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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