मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि उनके प्रदेश में अब नौकरियां मध्यप्रदेश के लोगों को ही दी जाएंगी। मध्यप्रदेश की नौकरियां अन्य प्रदेशों के लोगों को नहीं हथियाने दी जाएंगी। शिवराज चौहान की यह घोषणा स्वाभाविक है। इसके तीन कारण हैं। पहला, कोरोना की महामारी के कारण बेरोजगारी इतनी फैल गई है कि इस घोषणा से स्थानीय लोगों को थोड़ी सांत्वना मिलेगी। दूसरा, कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने घोषणा की थी कि मप्र सरकार की 70 प्रतिशत नौकरियां मध्यप्रदेशियों के लिए आरक्षित की जाएंगी। ऐसे में चौहान पीछे क्यों रहेंगे ? तुम डाल-डाल तो हम पात-पात। तीसरा, 24 विधानसभा सीटों पर कुछ ही माह में उपचुनाव होनेवाले हैं। उनमें कई पूर्व कांग्रेसी विधायकों को भाजपा अपना उम्मीदवार बनाकर लड़ाएगी। यह बड़ी विकट स्थिति है।
ऐसे में भाजपा की तरफ से आम मतदाताओं के लिए तरह-तरह की चूसनियां लटकाना जरुरी हैं। इसके अलावा ऐसी घोषणा करनेवाले शिवराज चौहान अकेले नहीं हैं। कई मुख्यमंत्रियों ने पहले भी कमोबेश इसी तरह के पैंतरे मारे हैं और उन्हें उनके सुपरिणाम भी मिले हैं। शिव सेना ने महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुस’ का नारा दिया था। 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने नियम बनाया था कि जिस उद्योग को सरकारी सहायता चाहिए, उसके 80 प्रतिशत कर्मचारी महाराष्ट्र के ही होने चाहिए। गुजरात सरकार ने भी कुछ इसी तरह के निर्देश जारी किए थे। आंध्र, तेलंगाना और कर्नाटक में भी यही प्रवृत्ति देखी गई है। ऐसी स्थिति में शिवराज-चौहान और कमलनाथ की घोषणाएं स्वाभाविक लगती हैं लेकिन जो स्वाभाविक लगता हो, वह सही हो, यह जरुरी नहीं है। इसके भी कई कारण हैं।
पहला, यदि हम पूरे भारतवर्ष को अपना मानते हैं तो हर प्रदेश में किसी भी भारतीय को रोजगार पाने का अधिकार है। जब हम दूसरे राष्ट्रों में रोजगार पा सकते हैं तो अपने ही देश के दूसरे राज्यों में क्यों नहीं पा सकते ? दूसरा, उक्त प्रावधान हमारे संविधान की धारा 19 (1) का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि धर्म, वर्ण, जाति, भाषा, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव करना अनुचित है। तीसरा, जिस भाजपा ने धारा 370 और 35 ए खत्म करके कश्मीरी प्रतिबंधों को समाप्त किया है, उन्हें भाजपा की एक प्रादेशिक सरकार क्या अपने प्रदेश में फिर लागू करेगी ? चौथा, नौकरियां तो मूलतः योग्यता के आधार पर ही दी जानी चाहिए, चाहे वह किसी भी प्रदेश का आदमी हो। यदि नहीं तो सरकारें निकम्मों की धर्मशालाएं बन सकती हैं।
डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)