राजनीति में जाति ही अंतिम सत्य

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वैसे तो इन दिनों थोक के भाव मोटिवेशनल स्पीकर आ गए हैं, लेकिन जब इकलौते मोटिवेशनल स्पीकर शिव खेड़ा तो उन्होंने कुछ बचकाने सवालों के स्टीकर बनवा कर देश भर में चिपकवाए थे। उनका एक सवाल था- धर्म बदल सकते हैं तो जाति क्यों नहीं? उनको यह बुनियादी बात पता नहीं है कि इस देश में जाति हमेशा धर्म से ऊपर है। धर्म बदल लेने वालों ने भी कभी जाति नहीं बदली, जिस धर्म में गए वहां अपनी जाति लेते गए। तभी पिछले दिनों कई मुस्लिम संगठनों ने कहा कि अगर जनगणना में जाति की गिनती होती है तो मुसलमानों में भी जातीय जनगणना होनी चाहिए। सो, भारत में जाति परम सत्य है। और अगर राजनीति की बात हो तो वहां जाति के आगे कुछ नहीं है। वह अंतिम सत्य है। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक हर पार्टी और हर नेता की राजनीति जाति के ईर्द-गिर्द घूमती हुई होती है। अलगाववादी हो या राष्ट्रवादी, भगवा धारण किए हुए हो या हरा चोगा पहने हुए हो, दाढ़ी बढ़ा कर राजऋषि बना हो या क्लीन शेव्ड हो और विकास की राजनीति करता हो या विनाश की, उसकी राजनीति अंतिम तौर पर जाति को केंद्र में रख कर ही होगी। याद करें कैसे नरेंद्र मोदी ने ‘ये देश नहीं झुकने दूंगा, ये देश नहीं मिटने दूंगा’ से अपनी राजनीति शुरू की थी और कैसे जाति नहीं मिटने दूंगा तक पहुंचे हैं!

कांग्रेस की अपनी कोई राजनीति नहीं है और उसके पल्ले भी कुछ नहीं है इसलिए उसकी राजनीति पर चर्चा की जरूरत नहीं है। पर पोस्ट आइडियोलॉजी पोलिटिक्स की पार्टी के तौर पर उभरी वैकल्पिक गवर्नेंस मॉडल वाली आम आदमी पार्टी की भी पूरी राजनीति जाति केंद्रित है। यहां तक कि देश की कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने लंबे राजनीतिक इतिहास में कभी भी जाति के दायरे से बाहर नहीं निकल सकीं। मंडल की राजनीति के समय जिन प्रादेशिक पार्टियों की उत्पति हुई, चाहे उनकी बात करें या गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के तहत दक्षिण भारत में बनी प्रादेशिक पार्टियों की बात करें, सबकी राजनीति जाति केंद्रित है। भारतीय जनता पार्टी बरसों तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के धागे से बंधी हुई थी और ब्राह्मण-बनियों की पार्टी मानी जाती थी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कमान में वह प्रादेशिक पार्टियों की तरह जातीय संतुलन साधने वाली पार्टी बन गई है। पहले उसने देश की बात की, फिर हिंदू की बात की और अब जातियों की बात कर रही है। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि हिंदुत्व की प्रयोगशाला माने जाने वाले गुजरात में पाटीदार समाज का मुख्यमंत्री बनाया जाए। नरेंद्र मोदी को 2001 में मुयमंत्री बना कर लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात में भाजपा को पाटीदार समाज की बंधुआ पार्टी की पहचान से मुक्त कर दिया था।

बीच में दो साल के आनंदी बेन पटेल के अनुभव को छोड़ दें तो मोदी ने भी वहीं राजनीति की, जो आडवाणी ने की थी। पर जैसे ही आम आदमी पार्टी ने पटेल राजनीति का दांव चला और डबल या ट्रिपल इंजन वाली सरकार की एंटी इन्कंबैंसी कम करने की जरूरत महसूस हुईआ, भाजपा फिर पुराने रास्ते पर लौट गई। भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण को पटाने के लिए प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर रही है। उाराखंड में ठाकुर मुख्यमंत्री बनाया तो दलित प्रभारी और ब्राह्मण चुनाव प्रभारी बना कर जातीय संतुलन बनाने का प्रयास किया। कर्नाटक में लिंगायत मुख्यमंत्री बदला तो उसकी जगह लिंगायत बना कर अपने कोर जातीय वोट को मैसेज दिया कि वह जाति की राजनीति से सूत भर भी इधर उधर नहीं हो रही है। प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रिपरिषद का विस्तार किया तो सबसे ज्यादा प्रचार इस बात का किया गया कि इस बार रिकार्ड संया में अन्य पिछड़ी जातियों के मंत्री बनाए गए हैं। उससे पहले पिछड़ी जाति आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर हर जगह इसका प्रचार किया गया कि 70 साल में जो नहीं हुआ वह मोदी ने कर दिया। फिर राज्यों को अन्य पिछड़ी जातियों की सूची बनाने का अधिकार दिया गया, जिसके बाद सबसे पहले उार प्रदेश में ही 60 के करीब जातियों को ओबीसी सूची में शामिल करने का फैसला होने वाला है।

लब्बोलुआब यह है कि कहीं केंद्रीय मंत्री के जरिए, कहीं मुख्यमंत्री के जरिए, कहीं राज्यपाल के सहारे तो कहीं प्रभारी और चुनाव प्रभारी के सहारे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व जातीय संतुलन बनाने में लगा है। जातियों में बंटे हिंदू समाज को एक करने और उसे हिंदुत्व या राष्ट्रवाद के मजबूत धागे से बांधने की बजाय भाजपा जाति आधारित क्षेत्रीय पार्टियों जैसी राजनीति कर रही है। विचारधारा की बजाय गवर्नेंस का वैकल्पिक मॉडल लेकर आए अरविंद केजरीवाल की राजनीति अपने वैश्य समाज से आगे नहीं बढ़ रही है। क्योंकि उनको पता है कि दिल्ली की राजनीति में सफलता तभी संभव है, जब भाजपा के कोर वैश्य वोट का एक हिस्सा उनका समर्थन करता रहे। वे भले देश की राजनीति कर रहे हैं पर उनको पता है कि दिल्ली में जमे रहे तभी देश की राजनीति होगी। पहले तो उन्होंने जरूर समावेशी राजनीति की थी पर अब वे भी दूसरी प्रादेशिक पार्टियों की तरह अस्मिता की राजनीति कर रहे हैं। पिछले दिनों उनकी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक हुई तो वे खुद तीसरी बार राष्ट्रीय संयोजक चुने गए। उनके बाद पार्टी के दो शीर्ष पदों में से सचिव के पद पर पंकज गुप्ता और कोषाध्यक्ष के पद पर एनडी गुप्ता चुने गए। उन्हें जब तीन राज्यसभा सदस्य चुनने का मौका मिला था तब भी उन्होंने संजय सिंह के अलावा सुशील गुप्ता और एनडी गुप्ता को चुना था। अभी पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और इन चुनावों में हिस्सा लेने वाली सारी पार्टियां अपने अपने हिस्से का जातीय समीकरण साधने में जुटी हैं।

भाजपा को उत्तर प्रदेश में गैर यादव पिछड़ी जातियों और सवर्ण वोट का संतुलन बनाना है तो समाजवादी पार्टी को यादव-मुस्लिम वोट में कोई तीसरी जाति जोडऩी है। बहुजन समाज पार्टी को दलित के साथ ब्राह्मण जोडऩा है तो इसके लिए मायावती त्रिशूल लहरा रही हैं। इनके अलावा कोई निषाद पार्टी का झंडा लेकर निकला है तो कोई राजभर पार्टी बनाए हुए तो कोई कुर्मी पार्टी बना कर तालमेल के प्रयास में लगा है। सारी बड़ी पार्टियां भी इन जातीय पार्टियों के पीछे पीछे घूम रही हैं। उत्तराखंड में सबको ब्राह्मण, ठाकुर और दलित का संतुलन साधना है तो पंजाब में राजनीति जाट सिख और दलित से आगे बढ़ ही नहीं रही है। भाजपा ने दलित मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान किया है तो अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने दलित उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की है। यह दुर्भाग्य है कि देश के सर्वाधिक समृद्ध राज्य महाराष्ट्र में मराठा, ओबीसी और दलित की राजनीति होती है तो देश के आईटी हब वाले राज्य कर्नाटक में राजनीति लिंगायत, वोक्कालिगा और ओबीसी के बीच बंटी है। तमिलनाडु में दशकों से राजनीति थेवर, वनियार, मुदलियार, नाडार में बंटी हुई है तो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की राजनीति में कम्मा व कापू जातियों के ईर्द-गिर्द ही सारी राजनीति होती है। सो, चाहे उार भारत की गोबर पट्टी हो या सुदूर दक्षिण के विकसित, शिक्षित राज्य हों, हर जगह राजनीति का अंतिम सत्य जाति है।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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