ये तो पत्रकारिता नहीं कही जा सकती…

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अमूमन मैं इन लफड़ों में पड़ना नहीं चाहता लेकिन काबिल पत्रकार रवीश कुमार के ब्लाग को पढक़र अरसे बाद मन कुछ लिखने का कर रहा है। रवीश कु मार ने लिखा है कि कश्मीर ताले में बंद है…कोई खबर नहीं मिल रही है..जो जम्मू-कश्मीर में किया गया वो गैर जरूरी था। पूछ भी रहे हैं इसकी क्या जरूरत थी? क्या देश चलाने के लिए अब सरकारों को पत्रकारों से पूछने की जरूरत पड़ेगी? खबर ना मिलने का जो दर्द रवीश कुमार का झलक रहा है उसका आश्य क्या है? क्या खबर केवल वही होती है जो पत्रकार को पता रहे, चलकर खुद पत्रकार तक पहुंचे…या फिर रवीश का कहने का आश्य ये है कि वहां पर अत्याचार हो रहे हैं? मोदी सरकार गलत कर रही है? क्या रवीश जी बता सकते हैं कि जब डोगराओं पर शेख अब्दुल्ला जुल्म ढा रहे थे तब उनकी नजर में कश्मीर में ताला खुला था।

जब लद्दाख का कश्मीरी नेता दशकों दशक शोषण कर रहे थे तब कश्मीर का ताला खुला था..जब कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगाया गया तब कश्मीर का ताला खुला था…जब लगातार आतंकवाद पनपता रहा, गढ़ बना रहा, तब रवीश कुमार की नजर में कश्मीर का ताला खुला हुआ था…जब फौजों पर आतंकवादी हमले कर रहे थे, घाटी से शिक्षा के मंदिरों को मिटा रहे थे, तब कश्मीर का ताला खुला था…लिखने को बहुत कुछ है लेकिन अगर रवीश कुमार ये मानते हैं कि हमारी धरती पर पाकिस्तानी झंडे लहराना ही ताला खुला रहने की निशानी है, सबूत है, जेएनयू में भारत विरोधी नारेबाजी ही असली लोकतंत्र है और हर मसले पर सरकार को घेरकर कोई सम्मान ले लेना ही असली पत्रकारिता है तो फिर ऐसी सोच से भी तौबा और ऐसी पत्रकारिता से भी…

सरकारों का विरोध पत्रकारिता नहीं, बल्कि जनता के साथ खड़ा दिखना पत्रकारिता है लेकिन हर मसले को किसी खास पर घुमा फिराकर टिका देना कहां की पत्रकारिता…ना मैं किसी दल का हिमायती और ना ही नेता का…जो सही है वो सही कहने की हिम्मत रखनी चाहिए, जो गलत है उसे गलत कहो लेकिन नहीं जब गलत आदमी या नेता भी सही काम करे तो भी उसे गलत ही ठहराओ तो ये रवीश जैसे पत्रकारों का मिशन हो सकता है,…वो इस मिशन में लगे रहें लेकिन जहां सवाल देश का है,,,फौज का है ,कश्मीर का है वहां पर इस तरह की बातें लिखना कहां तक उचित है? कश्मीर में ताला लगा है, उनके लिखे से तो मुझे यही लगता है कि हो सकता है बुढ़ापे में नजर के साथ-साथ सोच भी उनकी धुंधली देखने पर मजबूर कर रही हो…अगर चंद दिन ताला लगाने से घर में शांति आती है, हमारा ही हिस्सा पनपता है, तो फिर ये तालाबंदी जितने दिन रखनी पड़े तो रखनी चाहिए..

क्या रवीश कुमार बता सकते हैं कि धरती पर ऐसा कौन सा देश है जो उनकी पत्रकारिता में उठाए गए सवालों पर सौ फीसद खरा उतरता हो….वो भी नहीं जिसके इनाम पर वो इतरा रहे हैं। रवीश कुमार जैसे पत्रकार आखिर कब देश के साथ खड़े दिखाई देंगे? गुणगान मत करो, लेकिन जो सच सामने है उसमें नमक -मिर्च लगाए बिना हुबहू दिखाओ भी, पढ़ाओं भी…यही खबर है, इस सोच वालों को ही खबरनवीस कहते हैं। वरना मुझे तो उनकी सोच पर ताला बंद नजर आ रहा है। पहले खुद के दिमाग का ताला खोलने की जरूरत है। इतराने व दुनिया का सबसे अक्लमंद पत्रकार का मुगालता पालकर ही अगर वो पत्रकारिता करना चाहते हैं तो उनकोमुबारक। कम से कम मेरे जैसे अदने से पत्रकार तो इस शैली में ढल नहीं सकते। वैसे पत्रकार ए आजम रवीश कु मार को मैं पत्रकारिता नहीं सिखा रहा हूं, मुझे तो खुद नहीं आती। फिर भी मेरे लिए देश हित सर्वोपरि है।

डी.पी.एस पंवार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है ये उनके निजी विचार हैं)

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