यादों में शीला दीक्षित

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देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की तान बार मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित का रविवार को निगम बोध पर अंतिम संस्कार हुआ। जिसमें आम से लेकर खास तक अंतिम विदाई देने को घाट पर देखे गये। बेशक शीला दीक्षित कांग्रेस की बड़े नेताओं में एक थीं। लेकिन उनका सौम्य स्वभाव और अपने विरोधियों की बात सुनने का जो उनमें शऊर था, वह घाट प दिखा। सभी पार्टी के कद्दावर नेता मौके पर मौजूद थे। शनिवार को खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे। रविवार को गृहमंत्री अमित शाह की भी मौजूदगी रही। किस कद की शीला दीक्षित नेता थी, इसका पता पार्टी विचारधारा से इतर लोगों की मौजूदगी से चलता है। देश में महिला नेता के तौर पर उन्होंने जो लकीर खींची है वह नई पीढ़ी के नेताओं के विए अविस्मरणीय रहने वाला है। जो आया है उसका जाना तो नियति का क्रम है, लेकिन उसकी शख्सीयत बरसों-बरस प्रेरणा देती रहती है।

आधुनिक दिल्ली का जिक्र होने पर जो चेहरा नजर आएगा वह शीला दीक्षित होंगी। उन्हें यू ही दिल्ली का शिल्पकार नहीं कहा जाता। उनके मुख्यमंत्री रहते दिल्ली फ्लाईओवरों से ऐसी सजी कि सड़कों के साथ ही यातायात का चेहरा ही बदल गया। मेट्रो से लेकर शहर के सुन्दरीकरण तक का श्रेय उन्हें ही जाता है। उनके समय में शहर की आबोहवा पर भी काफी काम हुआ ऐसे योगदान के लिए भला दिल्ली उन्हें कैसे भूल सकती है। जिस तरह वर्तमान की कटुताभरी सियासत है उनमें ऐसे किसी मृदभाषी नेता का निर्वाण निश्चित तौर पर बड़ी क्षति है। जीवन के अंतिम दिनों तक उनकी सक्रियता बनी रही। दिल्ली कांग्रेस की अध्यक्ष थी। एक साल बाद दिल्ली चुनाव होने हैं, ऐसे में उनका चले जाना पार्टी के लिए बड़ी क्षति है। खासतौर पर जब राज्य में पार्टी के भीतर गुटबाजी चरम पर है। यह शीला दीक्षित के व्यक्तित्व का असर ही था कि उन्हें गांधी परिवार ने उम्र के आठवें पड़ाव पर अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी थी।

उन्हें इंदिरा गांधी के समय से ही बहुत पसंद किया जाता रहा है। तब से चला रिश्ता उम्र की आखिरी सांस तक बना रहा। कांग्रेस का पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की भावभीनी श्रद्धांजलि से पता चलता है कि दस जनपद से उनकी कितनी निकटता थी। यही वजह थी कि उन्हें जब पार्टी की तरफ से उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चेहरा बनाया गया तब उन्होंने ना नहीं की, हालांकि बाद में सपा से समझौते के बाद बात आई-गई हो गई। इसी तरह हाल के आम चुनाव में उन्हें संसदी का चुनाव लड़ाया गया, तब भी वही स्वीकार्य भाव। हालांकि भाजपा के मनोज तिवारी से उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

पर ऐसा व्यक्तित्व जो लगातार तीन बार राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का मुख्यमंत्री रहा हो, उसके लिए हाल के इन वर्षों में अप्रत्याशित अनुभवों से गुजरने के बाद भी समभाव बनाए रखना और वैसे ही सही अर्थों में जीना बहुत मुश्किल होता है लेकिन उनके लिए यह सब कुछ सामान्य जैसा था। वाकई वो कांग्रेस की सिपाही थी। ऐसे समय में जब कांग्रेस अपने सबसे कठिन दौर में है, जहां उसके लिए स्पष्ट फैसले लेने की जरूरत है, तब शीला दीक्षित जैसी अनुभवी नेता का जाना पार्टी की बड़ी क्षति है। हालांकि कोई खालीपन सदा के लिए नहीं रहता पर शीला दीक्षित जैसी नेता की भरपाई में वक्त लगेगा। अब उनकी यादें शेष हैं। उनके बेटे ने ठीक ही कहा कि मां का व्यक्तित्व था ही ऐसा कि लोग खुद-ब-खुद उन्हें अश्रूपूरति विदाई देने को उमड़ पड़े। वो जनता की नेता थी।

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