यह महापर्व सबसे अधिक महंगा होगा…!

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हमारे इसी देश में हमने अपना पहला लोकतंत्र महापर्व (चुनाव 1952) सिर्फ दस करोड़ रुपए में मनाया था, जो अब मात्र सढ़सठ साल बाद मनाए जा रहे इस लोकतंत्र महापर्व पर इस वर्ष इकहत्तर हजार करोड़ रुपया खर्च होने का अनुमान है। इतनी वृद्धि दर तो हमारे देश में महंगाई की भी नहीं रही, जितनी चुनावी खर्च की है और इस लोकसभा चुनाव के बाद पूरे विश्व के प्रजातंत्री देश में सबसे मंहगा चुनाव कराने का सेहरा देश के सिर पर बंध जाएगा।

हमारा लोकतंत्र अब हमारे देश के लिए काफी खर्चीला और महंगा साबित होने लगा है। हमारे इसी देश में हमने अपना पहला लोकतंत्र महापर्व (चुनाव 1952) सिर्फ दस करोड़ रुपए में मनाया था, जो अब मात्र सढ़सठ साल बाद मनाए जा रहे इस लोकतंत्र महापर्व पर इस वर्ष इकहत्तर हजार करोड़ रुपया खर्च होने का अनुमान है। इतनी वृद्धि दर तो हमारे देश में महंगाई की भी नहीं रही, जितनी चुनावी खर्च की है और इस लोकसभा चुनाव के बाद पूरे विश्व के प्रजातंत्री देश में सबसे मंहगा चुनाव कराने का सेहरा देश के सिर पर बंध जाएगा। इससे पहले हुए लोकसभा चुनाव (2014) पर हमने 35.577 करोड़ रुपये खर्च किए थे। इस बार पिछली बार के मुकाबले दोगूने से भी अधिक राशि खर्च होने का अनुमान है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि 2016 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में 46.270 करोड़ रुपये खर्च हुए थे और चुनाव खर्च में अब तक वही सिरमौर हुए थे, और अब भारत अमेरिका ये यह खर्चीला ताज छीनने जा रहा है। फिर सबसे बड़ा और अहम तथ्य तो यह है कि यह खर्च तो वह है जो खुलेआम कागजों पर दिखाया जाता है, इससे कई गुणा अधिक खर्च राजनीतिक दल सब कुछ छुपाकर करते है। यदि यह कहा जाए कि चुनावों में देश के कालाधन का भी उपयोग हो रहा है, तो कोई गलत नहीं होगा, क्योंकि देश के बड़े उद्योगपति य पूंजीपति अरबों में पार्टियों को चंदा जो देते है, जिसका हिसाब कभी भी उजागर नहीं होता, चूंकी ये ही सत्ता के कर्णधार होते है, इसिलिये उन्होंने कोई ऐसा सख्त कानून भी नहीं बनाया, जिससे इनकी यह करगुजारी उजागर हो सके।

यहां तक कि सूचना के अधिकार का कानून भी पार्टियों के चुनावी चंदे पर लागू नहीं होता। हमारे प्रजातंत्र को यह एक विसंगति है कि देश पूंजीपति व उद्योगपति राजनीतिक दलों को जितनी राशि चंदे में देते है, संबंधित दल के सत्ता में आ जाने के बाद वह दी गई राशि से कई गुना बसूलने का प्रयास भी करते हैं और राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद चंदादाताओं का विशेष ध्यान भी रखते हैं और उन्हें हर तरीके से उपकृत करने का प्रयास करते है। लाकतंत्र के साथ यह भी तो एक विसंगति जुड़ी है कि पांच साल में एक बार ही राजनीति का पहाड़ झुककर आम आदमी के पास आता है, बाकी चार साल तो आम आदमी अपने हाल पर रोता रहता है, उसके आंसू पौछने वाला कोई नहीं होता, किन्तु अब समय के साथ देश का आम वोटर भी समझदार, जागरूक और सर्वज्ञाता हो गया है। अब वह सयझ गया है कि उसे क्या करना है?

सतारूढ़ दल की कौन सी ज्यादा या गलती का उसे दण्ड देना है, शायद इसीलिए इस बार सत्ताधारी दल कुछ डरा सहमा सा नजर आ रहा है। कुल मिलाकर यदि इस बार चुनाव के नतीजे कुछ चमत्कारी हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि देश के आम मतदाता की स्मृत्ति भी अब समय के अनुसार तीक्ष्ण हो चुकी है और सत्ता में आने के नेता ने कैन से वादे किए थे और सत्ता में आने के बाद उनमें से कितने वादों के मूर्तरूप दिया? शायद इसी लिए सत्ताधारी दल चुनाव के समय अपनी विगत को और भविष्य की दुर्गति को लेकर चिंतित व भयभीत रहता है, आज देश में सत्तारूढ़ दल की भी वही स्थिति है। अब देश में दैनदिनी उपयोग की वस्तुओं के साथ चुनाव भी काफी महंगे होते जा है। यदि कोई ऐसा चमत्कार हो, जिससे चुनावों के प्रबंधन और प्रचार पर खर्च होने वाली अपार धन राशि देश के गरीबों के कल्याण व विकास पर खर्च हो तो सोचिए यह भारत को विश्व में कितनी बड़ी और दुनिया के लिए अनुकारणीय मिलास होगी?

ओमप्रकाश मेहता
लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार है

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