दुनिया के किसी और देश में यह जुमला शायद इतना नहीं बोला जाता, जितना भारत में कि अमुक विषय पर राजनीति नहीं होनी चाहिए! जो सत्ता में होता है वह हर बात में कहता है कि इस विषय पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। यह अलग बात है कि सत्ता में बैठे लोग खुद हर विषय पर राजनीति करते हैं। जैसे इस समय कोविड-19 की महामारी भी सरकार के हाथों एक राजनीतिक अस्त्र बन गई है। सरकार अलग अलग जरूरतों के लिए इसका इस्तेमाल कर रही है। देश की अर्थव्यवस्था पहले से ही नोटबंदी के बिना सोचे समझे और जीएसटी के जल्दबाजी में किए गए फैसले का शिकार हुई पड़ी थी लेकिन देश की वित्त मंत्री ने अब कोविड-19 को ‘एक्ट ऑफ गॉड’ बता कर अर्थव्यवस्था की बदहाली का ठीकरा भगवान के माथे फोड़ दिया हैं।
यह इकलौती मिसाल नहीं है यह बताने के लिए कि सरकार कोरोना का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। केंद्र सरकार ने संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन का उपाय आजमाया था। पहले उसने पूरे देश में खुद लॉकडाउन लगाया और उसके बाद इसे राज्यों के हाथ में छोड़ दिया गया। राज्यों से कहा गया कि वे अपनी जरूरत और स्थितियों के हिसाब से लॉकडाउन लागू करेंगे। अब फिर केंद्र ने लॉकडाउन का अधिकार राज्यों के हाथ से छीन लिया है। अनलॉक के चौथे चरण के दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि सिर्फ कंटेनमेंट जोन में ही लॉकडाउन लागू होगा। यानी अब राज्य नाइट कर्फ्यू या वीकेंड का लॉकडाउन नहीं कर पाएंगे। साथ ही सौ लोगों तक की मौजूदगी में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक गतिविधियों की मंजूरी भी दे दी गई है।
लॉकडाउन के मामले में राज्यों के हाथ इसलिए बांधे गए हैं क्योंकि भाजपा को अब कम से कम दो राज्यों में राजनीति करनी है। बिहार में विधानसभा का चुनाव तय समय पर कराना है और उससे पहले या उसके साथ ही मध्य प्रदेश में विधानसभा की 27 सीटों पर उपचुनाव कराना है। अब अगर बाकी राज्य संक्रमण रोकने के लिए अपने यहां लॉकडाउन करते रहेंगे, तब इन राज्यों में राजनीतिक गतिविधियां करने के रास्ते में एक नैतिक बाधा खड़ी रहेगी। सो, लॉकडाउन का मामला ही खत्म कर दिया गया। ऐसे ही जब तक बिहार, मध्य प्रदेश के चुनाव नहीं थे तब भले संक्रमण के मामले कम थे, पर राजनीतिक गतिविधियों पर रोक रही। लेकिन अब संक्रमण के मामले हर दिन नए रिकार्ड बना रहे हैं, देश में हर दिन औसतन 75 हजार केसेज आ रहे हैं और तब राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत दे दी गई। ध्यान रहे दुनिया में सबसे ज्यादा संक्रमित अमेरिका में जिस दिन पहली बार 70 हजार से ज्यादा मामला आया था उस दिन पूरे देश में सरकार की क्षमता को लेकर सवाल उठे थे और चिंता जताई गई थी। पर अब भारत में हर दिन 75 हजार या उससे ज्यादा केस आ रहे हैं और भारत में राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत दे दी गई क्योंकि सत्तारूढ़ दल को चुनाव कराना है।
ऐसे ही सरकार ने विशेष ट्रेनें चला रखी हैं, हवाई सेवा शुरू हो गई है, शॉपिंग मॉल और शराब की दुकानें खुल गई हैं, अनलॉक के तीसरे चरण में होटल भी खोल दिए गए पर संसद को बंद रखा गया। सरकार ने कोरोना महामारी का इस्तेमाल संसद को बंद रखने के लिए किया है। पूरे देश में पांच सौ केसेज थे तब मार्च के आखिरी हफ्ते में कोरोना के नाम पर संसद के बजट सत्र को आनन-फानन में स्थगित कर दिया गया था। अब छह महीने में सत्र बुलाने की संवैधानिक मजबूरी में 14 सितंबर से सत्र का आयोजन हो रहा है तो उसमें भी कोरोना के राजनीतिक अस्त्र का इस्तेमाल करके संसद की गतिविधियों को सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है।
यह सरकार चाहती है कि इंजीनियरिंग और मेडिकल में दाखिले के लिए 20 लाख बच्चे परीक्षा केंद्रों पर पहुंचे और परीक्षा में शामिल हों। उन बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए कोरोना का संक्रमण खतरे की बात नहीं है पर 786 सांसद दो सदनों में अलग अलग बैठ कर संसद की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकते हैं! सुरक्षा के नाम पर कई तरह के उपाय किए जा रहे हैं। उन उपायों को लेकर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है लेकिन सुरक्षा के नाम पर संसद की गतिविधियों को सीमित नहीं किया जाना चाहिए।
यह ध्यान रखें कि संसद जितनी सरकार की है उतनी ही विपक्ष की भी है और इसलिए संसद की कार्यवाही का समय लगभग आधा-आधा सरकार और विपक्ष के बीच बंटा हुआ होता है। आधे समय तक सरकारी कामकाज होता है और आधा समय विपक्ष सहित सभी सांसदों को मिलता है। हर दिन की कार्यवाही का पहला एक घंटा प्रश्न काल का होता है, जिसमें सरकार से सवाल पूछे जाते हैं। इस बार कहा जा रहा है कि प्रश्न काल नहीं होगा। इसके बाद एक घंटे का शून्य काल होता है, उसे भी इस बार टालने की बात हो रही है। फिर अल्पकालिक चर्चा और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए भी सांसदों को समय मिलता है। किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर काम रोको प्रस्ताव के जरिए भी चर्चा होती है। इसके अलावा हर दिन की कार्यवाही का बाकी आधा समय सरकारी और विधायी कामकाज के लिए निर्धारित होता है, जिसमें बिल आदि पर चर्चा होती है और उन्हें पास कराया जाता है। लेकिन इस बार ऐसा लग रहा है कि कोरोना के नाम पर सरकार विपक्ष को मिलने वाला समय खत्म करने की तैयारी कर रही है। यानी सिर्फ सरकारी कामकाज होंगे।
सरकार इस बार जन सरोकारों से जुड़े कई बिल लाने वाली है। कृषि से संबंधित तीन अध्यादेश मंजूर किए गए हैं, जिन्हें कानून बनाने का काम इस सत्र में होना है। खेती-किसानी के ज्यादातर जानकार इनको किसान विरोधी बता रहे हैं। इसके अलावा भी 20 से ज्यादा बिल पेश होकर पास होने वाले हैं। ऐसा लग नहीं रहा है कि सरकार गंभीरता से सारे विधेयकों पर बहस कराने के मूड में है। कोरोना संकट के नाम पर सरकार जैसे तैसे अपने विधायी काम निपटाने के प्रयास में लगी दिख रही है।
इसी तरह कोरोना वायरस की महामारी के नाम पर अदालतें बंद हैं। वर्चुअल कार्यवाही में जरूरी कामकाज के नाम पर गिने-चुने मुकदमे निपटाए जा रहे हैं। देश की निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालतों तक पहले से मुकदमों का अंबार है, जिसमें हर दिन हजारों नए मुकदमे इकट्ठा होते जा रहे हैं। लोगों का न्याय का इंतजार लंबा होता जा रहा है। सोचें, कोरोना काल में विधायी कामकाज पूरी तरह से ठप्प हैं और न्यायिक कामकाज बहुत सीमित हो गया है। परंतु राजनीतिक गतिविधियां होंगी, धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रम भी होंगे और बच्चों की परीक्षाएं भी होंगी। इससे पता चलता है कि सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं!
अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)