मोदी, मोदीपंथी और हिन्दू बुद्धि

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वाराणसी में कोई डेढ़ सौ नेता और मंत्री नरेंद्र मोदी के नामांकन के गवाह बने। असंख्य पत्रकारों, कार्यकर्ताओं की उपस्थिति और भागीदारी से नरेंद्र मोदी ने काशी में अपना जो आयोजन किया वह व्यक्ति विशेष का सियासी पंथ निर्माण है। कबीरपंथियों, दादूपंथियों की तर्ज पर यह पंथ मोदी का, मोदी द्वारा पांच सालों में गढ़ा गया है। पिछले पांच साल की भारत यात्रा का यह वो मुकाम है, जिसमें हिंदुओं को विचारना चाहिए कि सोचा क्या था और हुआ क्या! मोदी ने भाजपा, संघ, संघ परिवार और परिवार के हिंदू विचार की तमाम धाराओं को न केवल निगला है, बल्कि इन सबको हर, हर मोदी के जयकारे वाले उन पंडे-पुजारियों में बदला है, जिनकी नियति सिर्फ पूजा करने की है। न भाजपा नाम की पार्टी बची, न भाजपा उम्मीदवारों का मतलब बचा और न भाजपा की विचारधारा या घोषणापत्र का मतलब है। जो है वह मोदी वचन, मोदीपंथ है।

सचमुच गंगा के किनारे काशी में मोदीपंथियों का जलसा सियासी पंथीकरण की अनहोनी दास्तां है। इसका अंत परिणाम मोदी को 400 सीटों में हो या डेढ़ सौ सीट में, यह वक्त बताएगा लेकिन गंगा के ही घाट से पांच सालों में देश ने जो देखा है उसकी याद अरसे तक बनी रहेगी। दुनिया के समकालीन लोकतांत्रिक इतिहास में राजनीति को व्यक्ति केंद्रित बनाने और पंथिक परंपरा बनाने का पिछले पांच सालों में जो काम हुआ है वह दुनिया का बिरला प्रयोग है। यों अहम ब्रहास्मि, आत्ममुग्धता व आत्माश्लाघा की हम सनातनी हिंदुओं में कथाएं कई हैं लेकिन ऐसी कोई कथा मुझे याद नहीं आ रही है कि पूरा समाज बावला हो कर शेखी को, आत्माश्लाघा को हिंदू मोक्ष समझे और भक्त लंगूरों की फौज उसे अपना पंथ बना डाले।

वाराणसी में नरेंद्र मोदी के चुनावी जयकारे के लिए इकठ्ठे हुए डेढ़ सौ नेता सवा सौ करोड़ लोगों के, पूरे समाज, पूरे देश, देश के श्रेष्ठि-एलिट वर्ग के प्रतीक हैं। तभी मैं हिंदू बुद्धि पर विचार करते-करते आश्चर्य में हूं। मुझे आम हिंदू बुद्धि की सामूहिकता का जो अनुभव हो रहा है उसने यक्ष सवाल बनाया है कि हिंदू की बुद्धि का होना क्या है? जब मूर्खता, अंहकार, देश विनाश, हिंदूघात, राष्ट्रद्रोह की और ले जाना समझदारी, विनम्रता, देशोत्थान, हिंदू गौरव और राष्ट्रभक्ति में कन्वर्ट हुई मिलती है तो बुद्धि कैसी?

लाख टके का सवाल है कि वाराणसी के किनारे डेढ़ सौ मंत्रियों, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी आदि ने अपने को मोदीपंथी बताते हुए मन में क्या सोचा होगा? जो हुआ जो हो रहा है उसमें मोदी शरणम्ा् गच्छामि के वक्त मन व्याकुल था या धन्य भाग्य के भाव में?
नरेंद्र मोदी ने सनातनी हिंदू की बुद्धि के यक्ष प्रश्न पैदा किए हैं। नरेंद्र मोदी ने लोकतंत्र का मतलब बदल दिया है। संसदीय प्रणाली और उसके चुनाव का मतलब बदल दिया है। पार्टी खत्म कर दी है। विचारधारा मिटा दी है और आत्ममुग्धता में अपने को सवा सौ करोड़ लोगों का अहम ब्रहास्मि अवतरित कर डाला है। नरेंद्र मोदी मतदाताओं से सीधे कह रहे हैं कि न देखो जनप्रतिनिधि और उम्मीदवार को। न देखो भाजपा को, बल्कि वे वोट का बटन दबाएंगे तो वह मोदी को वोट होगा। वे जनसभाओं में अनपढ़ों को अनपढ़ के अंदाज में समझाते हैं कमल पर बटन दबाना है। वोट, प्रसाद उन्हें चढ़ाना है।

तभी भाजपा चुनाव नहीं लड़ रही है। भाजपा के उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। ये सब निमित्त हैं। मंदिर के पंडे-पुजारी और व्यवस्थापक हैं, भाजपा व्यवस्थाओं की संगठक महज है। जनता इनको नहीं देखते हुए केवल और केवल नरेंद्र मोदी की मूर्ति पर फोकस किए हुए है। जनता से आह्वान है कि मूर्ति पर ध्यान धर कर बटन दबा सीधे भगवानजी को वोट का प्रसाद चढ़ाना है। निःसंदेह हिंदू धर्म में पहचान में भक्ति और आस्था एक तत्व है। दुनिया के दूसरे धर्मों में भी अफीम खिलाने का माध्यम भक्ति है लेकिन भक्ति के सूत्र पर राजनीतिक पंथ का निर्माण और उससे सियासी शोषण का मोदी के पंथवाद जैसा उदाहरण किसी और लोकतांत्रिक देश में नहीं मिलेगा।

उस नाते पांच सालों में राजनीति, पार्टी और व्यवस्था को जिस अंदाज में मोदीपंथ में कन्वर्ट किया गया है उस पर हिसाब से चुनाव की इस वेला में विचार होना चाहिए था। लेकिन ऐसा तभी संभव था जब विचार और बुद्धि को बचा रहने दिया जाता। सोचें, विचारना और बुद्धि आज है कहां? मोदी के जयकारे में नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जैसे चेहरों का वाराणसी पहुंचना या अंग्रेजी दां कथित एलिट वर्ग के चैनलों, पत्रकारों-एकंरों-मालिकों का बनारस के घाट से नरेंद्र मोदी की तूताड़ी या अक्षय कुमार का मोदी से प्राप्त ज्ञान का सर्वत्र प्रसारण का अनुभव क्या बोलता है? क्या यह सब बुद्धिहीनता और घिन पैदा करने वाला नहीं है? उफ! कैसे हैं हम लोग?

मोदीपंथी ऐसा नहीं सोचते! हम हिंदुओं का अनुभव है कि अहम ब्रहास्मि का उद्घोष कर जिसने अपने को भगवान घोषित कर अपना कल्ट, अपना पंथ बनाया उसके भक्त उसे फिर कभी नहीं छोड़ते। आसाराम के भक्तों पर इस बात का कोई असर नहीं है कि आसाराम और उसका बेटा अदालत द्वारा बलात्कार का दोषी करार हुए हैं। हां, आधुनिक भारत का इतिहास ऐसे ढेरों उदाहरण लिए हुए है कि व्यक्ति विशेष की आत्ममुग्धता उसे भगवान घोषित कराती है, भक्ति बनवाती है, दोहन करवाती है और बाद में भांड़ा फूट भी जाए तब भी भक्तों की आस्था नहीं डिगती!

याद करें आसाराम को। याद करें राम-रहीम को। याद करें सहारा परिवार के सुब्रत रॉय को। ऐसे तमाम चेहरे इस बात का प्रमाण है कि थोथा चना बाजे घना। ये इस बात के भी प्रमाण है कि अहम ब्रहास्मि, आत्ममुग्धता व आत्माश्लाघा में यदि कोई चतुर व्यक्ति चतुराई से धर्म, व्यापार, राजनीति में मार्केटिंग बनाता है तो हम हिंदू हकीकत और अफसाने में फर्क करने में समर्थ नहीं होते हैं।

नरेंद्र मोदी की आत्ममुग्ध राजनीति पर किसी ने केरल की उस लोकोक्ति का उदाहरण दिया कि यदि कोई आकस्मिक उपलब्धि पाता है तो वह रात में भी छतरी खोल सोता है और जतलाता है कि मेरे पास छतरी है। आसाराम, सुब्रत राय ने आकस्मिक भाग्योदय से कैसे कल्ट बना अपने आपको उछाले रखा और अंत क्या हुआ, यह हम लोगों का हालिया अनुभव है लेकिन कल्ट या पंथ क्योंकि हिंदुओं का सनातनी डीएनए है इसलिए सिलसिला लगातार है। नरेंद्र मोदी ने सत्ता वैभव से पांच सालों में अपना कल्ट, अपना पंथ ऐसे गढ़ा है, जिस पर लंगूरों की भक्ति ने उनमें भी यह विश्वास बना दिया है कि वे अजेय हैं। उनसे वोट है और उनके ही वोट हैं और बाकि सब जयकारा लगाने वाले। वे नायक हैं, वे महानायक हैं, वे महामानव हैं। वे काशी नरेश हैं और वे काशी से नहीं, बल्कि उनसे अब काशी है। तभी डेढ़ सौ नेताओं-मंत्रियों को काशी बुला कर उन्होंने अपने जो दिव्य दर्शन नेताओं-भक्तों को कराए तो वह महादेव की नगरी में नई कल्ट, नए पंथ का निर्माण था। पता नहीं इन नेताओं-मंत्रियों ने बाबा विश्वनाथ मंदिर में दर्शन किए या नहीं। बहुत संभव है हर, हर मोदी की गूंज ही इतनी जबरदस्त थी कि बाबा विश्वनाथ का ध्यान धरने की भला किसे फुरसत!

मैं कहां से कहां पहुंच गया! फिलहाल 2019 के चुनाव में मोदीपंथ की उत्पत्ति पर फोकस कर इस सवाल पर ही सोचें कि हम हिंदू कैसे हैं!

हरिशंकर ब्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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