मैं कैसे मनाऊँ रंगों की होली ?

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एक साल बाद फिर होली आई है, इस बार की होली में आनन्द तथा उमंग के रंग गायब हैं। चार दर्जन से अधिक निर्दोषों की हत्याएं जले हुए मकानदुकान और बेसहारा हुए हजारों लोग और दिलों में जलती घृणा की आग, कैसे रंग की पिचकारी पकडऩे का साहस देगी? अचानक देश का सौहार्द खाक हो गया। ऐसा किसी ने सोचा तक नही था कि पड़ोसी ही पडोसी को मार देगा। यह ठीक है कि सरकार से किसी बात को लेकर मतभेद हो सकते हैं, यह लोकतंत्र का स्वभाव भी है, इसमें कोई गलती नहीं है। लेकिन यहां मतभेद नहीं थे, मतभेद तब होता जब कोई व्यवस्था अस्तित्व में होती। यह एक ग्रंथि थी, जो सालों से आम आदमी के दिलों में सबल की जा रही थी, उसको भयभीत कर रही थी, जिसने आक्रोश को जन्म दिया गया, एक भोला-भाला आम आदमी चालाक लोगों के फरेब का शिकार हो गया। हिंसा करने वाला आम आदमी, मरने वाला आम आदमी, पुलिस की कार्रवाई का शिकार आम आदमी, जिसकी मकान-दुकान जली, वह आम आदमी था। स्वयं को समाज में विशिष्ट समझने वाला वर्ग, जो आम आदमी के मन-मस्तिष्क में जहर घोल रहा था, उसका उद्देश्य पूरा हुआ और वह परिदृश्य से गायब हो गया। दो महीनों से कुछ कथित बु द्धिजीवी और राजनीतिक नेता देश में विद्रोह की भाषा की कक्षा लगा रहे थे, परिणाम यह निकला कि दिलको कम्पित करने वाला प्रयोग इस अभागे देश ने देख लिया।

मीडिया बता रहा है कि शोरूम, स्कूल और दुकाने जला दी गईं, लेकिन उन हजारों गरीबों की कोई बात नही कर रहा जिनकी रिशा और झोपड़ी को भस्म कर दिया गया। किसी श्रमिक की जिंदगी ही उसकी रिशा थी, जाने कैसे उसने रिशा खरीदी थी, उस पर वह कभी सब्जी तो कभी जूस बेचा करता था, शाम को घर लौटते समय आटा -दाल ले जाता था, अब घर में भुखमरी का साम्राज्य है। वे उसके पास नहीं आए जो शाहीनबागों में बिरयानी खिलाया करते थे। राष्ट्रघाती लोगों का कुछ नहीं गया, मरा-पिटा-लुटा आम आदमी। पुलिस ने एक हजार से अधिक लोगों को बंदी बनाया है। वे कैसे कराएंगे अपनी जमानत? कुछ को तो जमानती भी नहीं मिलेगा। पहले तो यह है कि जमानत होना भी सरल नहीं है। जमानत हो भी जाती है तो अदालतों के चक्कर और वकील की फीस कौन देगा? अदालत में जाना हो तो लोहे के पैर और चांदी का हाथ चाहिए। कहां से आएंगे ये दोनों? सबसे बड़ी समस्या टूटे विश्वास को जोडऩे की है। हो सकता है कि ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य दिखाई दे, लेकिन भीतर स्थापित कर दी गई, शंका को दूर करना, समय के हाथों में भी नहीं है। देश में पहली बार ऐसे नारे सुने, ऐसा बबाल देखा, ऐसी हिंसा देखी जिसको कोई रोकने वाला नहीं था।

राजनीति का इतना गंदा खेल, सड़कों पर आने की प्रेरणा, कथित धर्मगुरुओं के विद्रोही भाषण, किसी पर कोई कार्रवाई भी नहीं हुई, अंतत: देश की राजधानी जल उठी। करोड़ों-अरबों रूपये चुनाव प्रचार में खर्च करने वाले राजनीतिक दलों ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया कि पीडि़तों के दर्द को कम करने के लिए कुछ राहत ही दे दी जाती। कांग्रेस ने लोगों को सर्वाधिक उत्तेजित किया, लेकिन राहत शिविर नहीं लगाया। सन 2014 के चुनाव में राहुल गांधी की छवि बनाने के लिए पांच सौ करोड़ व्यय किए गए थे, या पीडि़तों के ऑसू पौछने के लिए वह पचास करोड़ खर्च नहीं कर सकती थी? यही स्थिति भाजपा की भी है। वह चाहती कि हर पीडि़त को पहला वाला सामान्य जीवन प्रदान करने की क्षमता प्रदान कर सकती है, पर वह भी पीडि़तों में इंसान नहीं, अपना वोटर खोज रही है। ऐसे गम के माहौल में, होली के मायने या रह जाते है? होली विश्व का एक ऐसा सांस्कृतिक और सामाजिक पर्व जिसका प्रत्येक रंग उत्साह और उमंग की चमक से रंजित है। यह भारत के उस विश्वास का प्रतीक है जिसमें हमारे ज्ञानवंत ऋषि कहते हैं कि जगत में सबका कल्याण हो और विश्व एक परिवार है। हमारे आध्यात्मिक मार्गदर्शक यह जानते थे कि समताभाव और मैत्री ही जीवन संचालन का सत्य है और प्रत्येक प्राणी एक-दूसरे का सहयोगी हो।

इसी भाव चेतना को होली के माध्यम से भारतीय प्रकट करते आएं हैं। वर्तमान वैश्विक तथा राष्ट्रीय संदर्भों में होली का यह संदेश अति महत्वपूर्ण है कि कोई भी व्यक्ति इस सृष्टि का भाग्यविधाता नहीं हो सकता और न ही कोई एक आस्था पूर्ण सत्य है, होली की पौराणिक कथा वैचारिक स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र का संदेश देती है। राजा हिरण्यकशिपु अधिनायकवाद का प्रतीत है, अपनी जिद के आगे देश को आग में डालने वाले अधिनायकवादी ही हैं। ऐसे लोग स्वयं को इस जगत का एक मात्र स्वामी तथा नियामक सिद्ध करना चाहते है। इसी चाहत में आईएसए तालिबान और बोकोहराम का जन्म होता है। प्रह्लाद वैचारिक स्वतंत्रता तथा लोकभावना का प्रतीक है जो राजा हिरण्यकशिपु का ही पुत्र है। प्रह्लाद का अहिंसात्मक विरोध एक जनक्रांति की अभिव्यक्ति है। ऐसी जनक्रांति को समाप्त करने के लिए अधिनायकवादी शक्तियां प्रत्येक प्रकार का उपाय करती हैं। लेकिन एक दिन जब नर यानी आम आदमी व्यवस्था परिवर्तन के लिए पूर्ण संकल्पित हो जाता है तो वह केवल नर नहीं रहता, नरसिंह हो जाता है। बिम्बों तथा प्रतीकों के माध्यम से बताई गई होली की कथाए विश्व की विभिन्न क्रांतियों की प्रेरणा भूमि है। प्रह्लाद का अर्थ आनन्द तथा भावनात्मक संवेग होता है। यही होली का ध्येय है।

हम कटुता, असमानता और अन्याय को समाप्त कर जन-जन के जीवन में आनन्द का स्थापित करें, यही आदर्श व्यवस्था के स्थापन का संकल्प यह महान पर्व प्रदान करता है। हम समरस हो जाए, कहीं किसी प्रकार का कोई भेद दिखाई न दे, सब के सुख-दुख एक हो, सब एक दूसरे के सहयोगी हो, इसी भाव को लेकर होली प्रति वर्ष आती है। यह विश्व का सबसे पुराना पर्व है। पांच हजार सालों से इस पर्व को भारतीय मनाते हैं। समय के साथ इसके साथ कथाएं जुड़ती चली गईं लेकिन इसका ध्येय नैशर्गिक तथा शाश्वत बना रहा। पूर्व वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि कहा जाता था लेकिन इसका आरम्भ बसंतपंचमी से आरम्भ होकर धुलिवंदन तक होता था। होली का संबंध धार्मिक कर्मकांड से न होकर सामाजिक जीवन में समरसता लाने तथा समृद्धि के संकल्प से है। पर,आज होली के मायने समाप्त से लगते हैं। एक समय था जब होली हिंदू-मुस्लिमों का संयुक्त पर्व था, धर्म इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं थीं। मध्यकाल के ऐतिहासिक प्रमाण होली को भारतीयों का त्यौहार सिद्ध करते हैं। सल्तनत और मुगलकाल में होली राजकीय पर बिना किसी भेदभाव के मनाई जाती थी, लेकिन सौहार्द्र के इस महान पर्व के 10-12 दिन पहले ही देश की राजधानी को घृणा की आग में जला दिया गया।

फिर हिरण्यकशिपु पैदा हो गया और बिना किसी आधार के पंथीय एकाधिकार की चाहत में वे सारे तटबंध तोड़ दिए गए जो इस सनातन राष्ट्र के सनातन आधार थे, इस देश का परिचय था। देश की राजधानी दिल्ली आग के शोलों में घिरती चली गई। मकान-दुकान तो जले ही, मानवीय संबंधों की डेार भी ध्वस्त हो गई। मकान हो, क्या दुकान उसको पुन: बनाया जा सकता है, लेकिन जो जख्म समाज को मिले, उनका इलाज होना कठिन है। किसी को सन 1947 के समय विभाजन के दंगे याद आए तो किसी को सन 1984 में हुए दंगों की भीषणता की यादों ने कॅपा दिया। सवाल यह है कि हम भारत के रहने वाले हैं, यह सीरिया या इराक नहीं है। यहां की संस्कृति समन्वय की संस्कृति है। इतनी महान संस्कृति कि अरब से बाहर पहली मस्जिद केरल के हिंदू शासक द्वारा मालावार में बनवाई गई थी। सूफियों को सर्वाधिक सम्मान भारत की भूमि पर ही मिला। अनेक इस्लामी परम्पराओं को भारतीयों ने बिना किसी संकोच के ग्रहण किया। वहां की धरती पर जब धर्म के नाम पर हिंसा होती है तो देश के संस्कार चीत्कार कर उठते हैं।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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