‘ये तो भली कही हाजी! नशा बर्दाश्त करना बड़ा मुश्किल काम है। जंतर-मंतर पर बैठने वालों पर जैसे ही कुर्सी का नशा छाता है, वे ऊल-जुलूल हरकतें करने गलता हैं!’ हाजी ने जैसे मेरी बात को कैच किया, ‘और हरकते भी कुर्सी के लेवल को मैच करती हैं। मुझे तो पहली बार पता चला कि जूतम-पैजाम भी प्रोटोकॉल देखकर होता है।’
‘सुना है फगुनाट चढ़ाए बैठे हो महाकवि! भंग-वंग न लगा लेना। नशा तुमसे बर्दाश्त नहीं होगा।’ हाजी पंडित मजे लेने और नसीहत देने के बीच वाले रास्ते पर चल रहे थे और कंफर्म नहीं हो पा रहा था कि किस तरफ उतरना है।
मैंने कहा, ‘ये तो भली कही हाजी! नशा बर्दाश्त करना बड़ा मुश्किल काम है। जंतर-मंतर पर बैठने वालों पर जैसे ही कुर्सी का नशा छाता है, वे ऊल-जुलूल हरकतें करने गलता हैं!’ हाजी ने जैसे मेरी बात को कैच किया, ‘और हरकते भी कुर्सी के लेवल को मैच करती हैं। मुझे तो पहली बार पता चला कि जूतम-पैजाम भी प्रोटोकॉल देखकर होता है। सांसद जी का एवरेज विधायक जी से काफी ज्यादा निकला।’
हाजी बाकायदा हाथ को लगभग उसी गति से चला रहे थे, जिस गति से वास्तव में दुर्गति की गई थी। फिर बोले, “मोदी जी इधर ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ का अलाप ले रहे थे उधर सांसद साबह ने ‘मेरा बूट, सबसे मजबूत’ के राग पर खंजड़ी बजा दी, वो तो भला हो कि जूते की जगह खडाऊं नहीं था। वैसे मुझे लगता है सांसद जी ने सोचा लिया होगा कि अकेले में कूटा तो कुछ नामुराद फिर सबूत मांगेंगे। इससे बेहत है कि हाथ के हाथ सबूत देते चलो!”
मैंने भी चुटकी ली, ‘सबूत मांगने वाले जब सैनिक पराक्रम का सबूत मांग लेते हैं, तो और क्या कहना।’ फिर हाजी के स्टाइल में कनखी मारकर मैंने बोला, ‘अब लकड़सुंघों को कौन बताए कि सैनिक के लिए शत्रु पर आक्रमण उसके पराक्रम-प्रदर्शन की ‘सुहागरात’ होती है और ऐसी ‘सुहागरातों’ के सबूत न तो मांगे जाते हैं, न ही दिए जाते हैं। कुछ महीनों में ये जगभर को स्वयं ही ज्ञापित हो जाते हैं!’ हाजी ऐसे हंसे कि सोफे ने स्प्रिंग-तल की गहराई से आभार व्यक्त किया।
फिर बोले, ‘एक तरीका यह है कि अबकी बार सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने वालों को जेट के मुहाने बांधकर ही ले जाया जाए।’ फिर हाजी ने पैटर्न बदला, ‘लेकिन एक बात बड़ी गड़बड़ हो रही है महाकवि! इस मुद्दे का बुरी तरह से राजनीतिकरण हो रहा है। कोई फौजियों के पोस्टर लगाकर वोट मांग रहा है तो कोई कह रहा है कि हमलों की वजह से सीटें ज्यादा आएंगी, तो कोई इस बात पर अपनी मोटी खाल वाली पीठ थपथपा रहा है कि अभिनंदन हमारी सरकार के समय पायलट बना था। हद है! कम से कम सैनिकों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना तो बहुत ही बुरा है। वो शेर सुनाते हो न तुम तुफैल चतुर्वेदी का’-
‘बुलंदी का नशा, सिम्तों का जादू तोड़ देती है
हवा उड़ते हुए पंछी के बाजू तोड़ देती है
सियासी भेड़ियों, थोड़ी बहुत गैरत जरूरी है
तवायफ तक किसी मौके पे घुंघरू तोड़ देती है!’
कुमार विश्वास
(लेखक जाने-माने कवि है)
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