मासूमों की मौत

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बिहार में दिमागी बुखार से पीड़ित नौनिहालों की मौत ने एक बार फिर चिकित्सा के क्षेत्र में सरकारी संसाधनों के दावों की पोल खोल दी है। सुशासन बाबू के रूप में चर्चित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कामकाज पर सवाल उठने लाजिमी हैं। डेढ़ हफ्ते से जब अस्पताल में बच्चों की सांसें थम रही थीं तो स्थानीय प्रशासन मूक क्यों रहा। स्वास्थ्य मंत्री इतनी देर से क्यों जागे। खुद मुख्यमंत्री ने इस मामले को कई दिन बीत जाने के बाद गंभीरता से लिया। सोमवार को उन्हें मुजफ्फरपुर मामले की गंभीरता समझ में आई और उच्च स्तरीय प्रशासनिक चुस्ती-फुर्ती देखी गयी। मंगलवार को उनका दौरा भी हुआ। केन्द्र से भी चिकित्सकों की टीम मुजफ्फरपुर भेजी गयी है। किन वजहों से बड़ी तादाद में बच्चों की मौत हुई है।

इसका अध्ययन भी किया जाना है। इस बीच तेज लू चलने और लीची के सेवन को दिमागी बुखार की बड़ी वजह बताया जा रहा है। हालांकि विशेषज्ञ बताएंगे आखिर इतनी तेजी से बुखार कैसे फैला और बच्चों की मौत हुई। इन सबके बीच प्रभावित परिवारों को मुआवजे की रकम देने का ऐलान हुआ है। अब तो अस्पताल तक पहुंचने वाले पीड़ित परिवारों को अपने साधन से आने का किराया भी प्रशासन की तरफ से चुकाने का आश्वासन दिया गया है। सवाल यही है कि किसी घटना के बाद प्रशासन- शासन के स्तर पर जो तेजी दिखाई देती है वह घटना से पहले क्यों नहीं होती। जो पैसा अब खर्च हो रहा है। एहतियाती तौर पर पहले से क्यों नहीं खर्च हुए। ऐसे मौसमी रोगों से बचाव के तरीके पहले क्यों नहीं अपनाए गए।

स्वास्थ्य विभाग का अमला अब तक क्यों सोया रहा। आशा बहुएं और आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां किस लिए होती हैं। दिमागी बुखार यानि चमकी रोग की घटना पहली बार नहीं हुई है। हर साल इन्हीं दिनों में इसका प्रकोप होता है। पिछली बार 50 के आसपास मौतें हुई थीं। इस बार अब तक 130 मौतें हो चुकी हैं। दिमागी बुखार का तो यूपी के पूर्वांचल इलाकों में भी प्रकोप रहता है। पर उपायों और बचावों पर स्वास्थ्य विभाग की तरफ से बड़ा काम हुआ है और इसका नतीजा है कि मामलों में 63 प्रतिशत कमी आयी है। पहले इन्हीं दिनों में देवरिया और गोरखपुर से भी दिमागी बुखार का शिकार हुए बच्चों की मौतें सुर्खियां बनती थी।

पर पिछले पांच साल से इस मामले में लोगों को जागरूक करने की दिशा में बड़ा काम हुआ है। बिहार सरकार भी पहले से चेती होती और संभावित क्षेत्रों में लोगों को जागरूक करने का काम हुआ होता तो स्थिति इतनी जटिल नहीं होती। दुखद यह है कि सरकारी अस्पतालों में आने वाले लोग बड़ी उम्मीद में आते हैं और वही से उन्हें निराशा मिलती है। जो संपन्न हैं वे तो निजी अस्पतालों में इलाज कराते हैं पर जो गरीब हैं वही तो सरकारी अस्पताल पहुंचते हैं। ये वह तबका है जो चुनाव के दिनों में सौ फीसदी अपनी हाजिरी भी लगाता है लेकिन उसी के लिए सरकारी मशीनरी संवेदनहीन बन जाती है।

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