मायावती ही क्यों मोदी भी जेब से पैसा भरें

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हैरानी की बात तो यही है कि जिस इंसान से वोट पाने के वास्ते मूर्तियों की राजनीति के रास्ते पर राजनीतिक दल और नेता चलते हैं उसी इंसान का भाव केवल वोट तक सीमित लेकिन चटकती, मटकती, आंखों में खटकती मूर्तियां बेमिलास। ना तो कोई बोलने वाला था और ना ही कोई टोकने वाला।।

लोकतंत्र देखने-सुनने-बोलने में जितना सुंदर लगता है, भोगना उतना ही दुश्वार। यहां गरीब इंसान की कीमत भले ही दो कौड़ी की ना हो लेकिन मूर्तियां करोड़ों में खड़ी होती हैं। हैरानी की बात तो यह है कि जिस इंसान से वोट-पाने के वास्ते मूर्तियों की राजनीति के रास्ते पर राजनीतिक दल और नेता चलते हैं उसी इंसान का भाव केवल वोट तक सीमित लेकिन चटकती, मटकती, आंखों में खटकती मूर्तियां बेमिसाल। ना तो कोई बोलने वाला था और ना ही कोई टोकने वाला। आजाद भातर में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने बेबाकी से जो कहा है, दिल चाहता है कि वो मिसाल बने। सवाल केवल इतना नहीं है कि अपने राज में जो हाथियों आदि की मूर्तियां मायावती ने लगवाई थी उनका खर्चा भरने को उन्हें कहा गया है, इससे बड़ा सवाल ये है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला इस देश के लिए नजीर बनेगा? क्या मूर्तियों पर सरकारी खाजाना लुटाने का दौर बंद होगा? क्या भविष्य में इस देश में मूर्ति के नाम पर राजनीति करने का ढर्रा खत्म होगा?

भारत में गिने-चूने ही चौक-चौराहें ऐसे होंगे जहां पर किसी ना किसी महानुभाव की मूर्ति ना गली हो। चाहे वो महत्मा गांधी हों या फिर सरदार पटेल या फिर मान्यवर कांशीराम। चाहे मूर्तियों को बरसों साफ ना किया जाता हो गंदगी से वो सराबोर रहती हो, रंगाई-पुताई के बिना बेढ़ंगी हो गई हों लेकिन वोट के लिए उन्हें लगाना है। जहां जगह दिख जाए वहीं पर किसी ना किसी को खड़ा कर दिया जाता है। जिस देश में इंसान के खड़े होने के लायक जगह की कमी पड़ रही हो वहां महानुभावों की मूर्तियां चौक-चौराहों-पाकों में लगाने का क्या मतलब? सरकारी खजाने से धन लुटाने का क्या मतलब? चलने के लिए जगह नहीं बची हैं लेकिन मूर्तियां लगाने के लिए ना तो जगह की सत्ताधारियों को कमी पड़ती है और ना ही धन की। किसी भी राज्य का उदाहरण ले लिजीए ज्यादातर कर्जे में डूबे है लिकन मूर्तियों पर इतना धन लुटाएंगे जैसे पेड़ से तोड़कर लागा गया हो। मायावती से अगर वसूली की बात सुप्रीम कोर्ट कर ही है तो इसे किसी भी नजरिए से गलत नहीं ठहराया जा सकता।

अंतिम फैसला अभी कोर्ट को करना है। मायावती को भी उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट उनकी सुनेगा लेकिन लाख टके का सवाल यहीं है कि जब इस तरह के फैसले सत्ताधारी करते हैं तो वो ये क्यों नहीं सोचते कि पैसा जनता का जा रहा है? फायदा राजनीतिक दलों को तो हो सकता है लेकिन जनता को क्या फायदा होता है? सवाल ये भी है कि क्या मायावती से ये 6 हजार करोड़ की वसूली हो पाएगी? वो कल ये तर्क दे सकती हैं कि फैसला अकेले उनका नहीं बल्कि कैबिनेट का था तब उस स्थिति में क्या होगा? खैर ये सब सोचने का काम सुप्रीम कोर्ट का है या मायावती का। देश यही कहेगा कि हां जिस-जिस सत्ताधारी ने सरकारी खजाना लुटाकर मूर्तियां लगवाई उन सबसे वसूली होनी चाहिए। साथ ही सुप्रीम कोर्ट को अब मूर्ति नीति भी तय कर देनी चाहिए। मूर्ति जरूरी है या इंसान, ये तय करने का समय आ गया है। अगर ऐसा होता है तो फिर ना तो मुलायम सिंह यादव बचेंगे ना उनके बेटे अखिलेश यादव। वो जनेश्वर मिश्र की मूर्ति सरकारी खजाने से 400 से ज्यादा करोड़ में बनवा चुके है। अगर मायावती को पैसा देना है तो क्या नरेन्द्र मोदी को नहीं देना चाहिए।।

लेखक
डीपीएस पंवार

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