महाराजा थे समस्या की जड़

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पिछले माह बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक विडियो जारी किया था जिसमें जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने को एक ऐतिहासिक कदम बताया गया है। यह 11 मिनट का विडियो है, जिसके लगभग अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि पटेल व आंबेडकर दोनों नेहरू की कश्मीर नीति के खिलाफ थे। विडियो के अनुसार सरदार पटेल ने 562 देसी रियासतों का भारत में स ल ढंग से विलय करवा दिया मगर कश्मीर मुद्दे को नेहरू ने अपने हाथों में ले लिया और राज्य को विशेष दर्जा देने की भयंकर भूली।

गांधी क अपील : सवाल है कि केवल कश्मीर को नेहरू ने अपने हाथों में क्यों लिया? जिन देसी रियासतों का विलय पटेल ने कराया, वे भारत की भौगोलिक सीमा के अंदर थीं और उनमें से किसी पर विदेशी आक्रमण नहीं हुआ था। कश्मीर भारत-पाकिस्तान की सीमा पर था और 1941 की जनगणना के अनुसार घाटी में मुसलमानों की जनसंख्या 93.45 प्रतिशत, जम्मू में 61.35 प्रतिशत (जम्मू के कुल 6 जिलों में से तीन जिले मुस्लिम बहुल हैं) और लद्दाख गिलगित आदि में 86.7 प्रतिशत थी। इस तरह कश्मीर को भौगोलि , सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां अन्य रियासतों से अलग थीं। इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी के बावजूद जम्मू-कश्मीर की सत्ता महाराजा हरि सिंह के हाथों में थी जो एक डोगरा हिंदू थे। अमृतसर की संधि के बाद केवल 75 लाख रुपये में घाटी और लद्दाख के क्षेत्र जम्मू डोगराशाही के अधीन आ गए थे। हरि सिंह कश्मीरियों के बीच बेहद अलोक प्रिय थे। वे दरअसल गैर-मुस्लिम से अधिक गैर-कश्मीरी शासक थे। उनके शासन के विरुद्ध शेख अब्दुल्ला ने संघर्ष का आह्वान किया और ‘महाराजा, कश्मीर छोड़ो’ का नारा दिया।

कश्मीर के इतिहास में विभाजन रेखा इस्लाम नहीं, बल्कि कश्मीरी से गैर-कश्मीरी शासन का परिवर्तन है। दूसरी ओर, नेहरू और गांधी की अहम भूमिका थी जिन्होंने कश्मीरी मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका। जब महाराजा ने शेख अब्दुल्ला पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो बतौर वकील उनकी ओर से लड़ने के लिए जवाहरलाल नेहरू कश्मीर गए। गांधी जी ने भी एक अगस्त 1947 को कश्मीर का दौरा किया जिसने कश्मीरियों को प्रभावित किया। गांधी जी ने अमृतसर समझौते, जिसने महाराजा को कश्मीर पर शासन करने का कानूनी अधिकार दिया था, को एक ऐसी सेल-डीड कहा, जिसका अंग्रेजी शासन खत्म होने पर कोई औचित्य न था। उन्होंने कश्मीर की जनता की तारीफ की कि जहां शेष भारत में सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं, कश्मीर एक आशा की किरण है। इस तरह नेहरू और गांधी, दोनों ने अपनी भावनात्मक अपीलों से मुस्लिम सांप्रदायिकता को बेअसर करके जनता में कश्मीरी देशभक्ति की भावना जागृत की। इसलिए आज अगर कश्मीर भारत का हिस्सा है तो उसका बहुत कुछ श्रेय शेख अब्दुल्ला के साथ-साथ नेहरू और गांधी को भी जाता है।

शेख अब्दुल्ला को भरोसा था कि भारत आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में एक धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील देश बनेगा। उन्हें जिन्ना की सांप्रदायिक राजनीति से नफरत थी। जिन्ना ने शेख अब्दुल्ला के आंदोलन को ‘गुंडों का आंदोलन’ कहा था। इधर हरि सिंह ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं’ की पसोपेश में थे। 12 अक्टूबर, 1947 को रियासत के उप दीवान राय बहादुर बत्रा ने घोषणा की: ‘हम हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहते हैं। भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का हमारा कोई इरादा नहीं है।’ कश्मीर समस्या की जड़ यहां है, नेहरू की नीतियों में नहीं। अगर महाराजा सही वक्त पर सही रुख अपनाते तो आज कश्मीर का मुद्दा कहीं न होता! महाराजा के ढुलमुलपन का फायदा पाकिस्तान उठाना चाहता था। पाकिस्तान के दो दूतों ने श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला से मुलाकात की और पाकिस्तान के पक्ष में निर्णय कराने पर जोर दिया।

वरना, उनका कहना था कि दूसरे तरीके इस्तेमाल किए जाएंगे। यह सरासर धमकी थी। शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा ‘आतिशे चिनार’ में लिखा है कि जब वे पाकिस्तान के कुछ नेताओं से बातचीत में मशगूल थे, पाकिस्तानी हमलावर कश्मीर के लोगों की जमीन और उनके अधिकारों को अपने पांवों तले कुचल रहे थे।’ कश्मीर पर कई पुस्तकों के लेखक बलराजपुरी ने लिखा है ‘इन घटनाओं के कारण महाराजा हरि सिंह के पास हिंदुस्तान की तरफ मुडऩे के अलावा कोई चारा न था। महाराजा ने नेहरू तक यह संदेश पहुंचाया कि मैं भारत में शामिल हो सकता हूं, शर्त यह है कि भारतीय सेना के जहाज इसी शाम को श्रीनगर पहुंच जाएं, अन्यथा मैं जाकर जिन्ना से बात कर लूंगा। नेहरू को यह सौदेबाजी अच्छी नहीं लगी लेकिन शेख अब्दुल्ला के आग्रह पर वे नरम पड़े और 27 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी आक्रमणकारियों का सफाया करने के लिए भारतीय सेना भेजी।’

अजेय कुमार
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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