महामारी में भी सांप्रदायिक नैरेटिव

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कोरोना वायरस के संकट के समय में सांप्रदायिकता का एक बेहद खतरनाक नैरेटिव तैयार किया जा रहा है। और यह अनायास नहीं है। इसके पीछे सोची समझी, सुविचारित योजना दिख रही है। यह सिर्फ कोरोना वायरस के संकट से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव के बाद हुए दिल्ली के दंगों का ही विस्तार दिख रहा है। कोरोना के बहाने तबलीगी जमात के लोगों पर हमला मार्च के महीने के आखिर में शुरू हुआ। दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में तबलीगी जमात के मरकज की अनुमति दी गई।

कोरोना वायरस के मामले आने शुरू हो जाने के बावजूद उसे दी गई मंजूरी रद्द नहीं की गई, जबकि दिल्ली के मुकाबले उस समय कम संवेदनशील रहे मुंबई में राज्य सरकार और पुलिस ने तबलीगी जमात के मरकज की अनुमति रद्द कर दी थी। सो, इस नैरेटिव की शुरुआत जाने-अनजाने में हुई दिल्ली पुलिस की उस गलती से होती है, जिसमें उसने मरकज के लिए दी गई अनुमति वापस नहीं ली थी और उसके बाद भी इस पर ध्यान नहीं दिया था कि मरकज के लोग अभी वहां हैं या चले गए।

एक दिन अचानक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के निजामुद्दीन पहुंचने और तबलीगी जमात के लोगों को वहां निकालने की खबरें मीडिया में आईं। उसके बाद की कहानी को मीडिया और सोशल मीडिया ने संभाल लिया। सारे दिन चैनलों पर खबरें चलीं कि कोरोना का मतलब तबलीगी जमात है। इसे मुसलमानों से जोड़ा गया और इस बहाने उनको देश और मानवता का दुश्मन बताया जाने लगा। यह नैरेटिव कोई एक महीने चला, तब जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया आई। उन्होंने कहा कि कोरोना धर्म, जाति, रंग, सीमा नहीं देखता है। उन्होंने एकजुटता और भाईचारे की अपील की। हालांकि तब तक तबलीगी जमात के ऊपर से फोकस हट कर दूसरी तरफ जा चुका था।

यह सबको पता है कि तबलीगी जमात का मामला ज्यादा नहीं चलेगा क्योंकि उनसे संक्रमण फैलने की सीमा है और जितना अधिकतम संक्रमण हो सकता था वह हो गया। अब शायद ही कहीं तबलीगी जमात के संक्रमित सामने आ रहे हैं। सो, उनके ऊपर से फोकस हटना ही था। इस बीच कई ऐसी घटनाएं हुईं, जो किसी न किसी तरह से इस नैरेटिव को स्थापित करने में सहायक हुईं। इनमें से तीन का जिक्र जरूरी है। सबसे पहले यह खबर आई कि गुजरात के एक अस्पताल में मुसलमानों के लिए अलग वार्ड बनाया गया है और उन पर कम ध्यान दिया जा रहा है। इसके बाद मशहूर लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति रॉय ने एक विदेशी चैनल को इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि भारत में सुनियोजित तरीके से मुसलमानों को मारा जा रहा है। तीसरी घटना यह हुई कि अचानक भाजपा के विधायक तेजस्वी सूर्या की एक पांच साल पुरानी ट्विट वायरस हो गई। यह ट्विट उन्होंने डिलीट कर दिया था पर पहले से सेव करके रखी गई फोटो वायरल हुई, जिसमें उन्होंने तारिक फतेह के हवाले से दावा किया था अरब देशों की 95 फीसदी महिलाओं को अपने जीवन में कभी भी यौन सुख नहीं हासिल हो पाता है।

भारत में किसी भी विमर्श को सांप्रदायिक रूप देने के लिए किसी बड़ी घटना की जरूरत नहीं होती है। ऐसे में यहां तो तीन घटनाएं हुईं और तबलीगी जमात वाली घटना की पृष्ठभूमि पहले से थी। सो, सारा देश इस बहस में उलझ गया। यहां तक संयुक्त अरब अमीरात के राजनीतिक लोगों ने सूर्या की ट्विट पर प्रतिक्रिया दी और वहां के भारतीय राजदूत को बात संभालने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिक्रिया का सहारा लेना पड़ा। इसके बावजूद ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन, आईओसी ने भी प्रतिक्रिया दी। तब केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि भारत में मुसलमानों का हितों व अधिकारों का पूरा ख्याल रखा जाता है और इससे बेहतर जगह उनके लिए और नहीं हो सकती है। सोचें, कोरोना के संकट के समय कैसे देश का विमर्श कहां से कहां पहुंच गया।

यहां से इस विवाद के दो पहलू खुलते हैं। एक, देश के टीवी पत्रकार कमर वहीद नकवी ने ट्विट किया और कहा कि संयुक्त अरब अमीरात में कोरोना संक्रमण के आधे मामले भारतीयों के हैं और अगर वहां की सरकार ने भेदभाव शुरू कर दिया तो क्या होगा। पता नहीं इस पर सरकार ने जान बूझकर ध्यान नहीं दिया या ऐसे ही अनदेखी कर दी पर यह बहुत खतरनाक ट्रेंड है। अगर भारत में मुसलमानों के साथ कुछ बुरा होने की सही या गलत खबर आती है तो क्या दुनिया भर के मुस्लिम देश वहां रहने वालों भारतीयों के साथ भेदभाव करने लगेंगे? या किसी ईसाई के साथ भारत में बुरा होगा तो दुनिया भर के ईसाई देश वहां रहने वाले भारतीयों से भेदभाव करेंगे? आज के भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में इस तरह की किसी बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस नैरेटिव को फैलाने में कमर वहीद नकवी अकेले नहीं थे। अनेक मुस्लिम विचारकों ने इस बात को हवा दी कि भारत को समझ लेना चाहिए नहीं तो अरब में प्रतिक्रिया होगी।

एक तरफ भारत में तबलीगी जमात, बांद्रा की मस्जिद के सामने लोगों के इकट्ठा होने की आधी अधूरी खबर, मुस्लिमों के इलाज में लापरवाही की खबरों के जरिए हिंदू-मुस्लिम का नैरेटिव बनाया जा रहा है तो दूसरी ओर इसमें अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को भी शामिल किया जा रहा है। इसमें शामिल लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि कोरोना का संकट तो महीने दो महीने या छह महीने, साल भर में खत्म हो जाएगा पर कम्युनल वायरस की जो स्ट्रेन लोगों के दिमाग में भरी जा रही है उसका जहर कभी खत्म नहीं होगा। कोरोना से बहुत बड़ी कीमत इसके लिए देश को चुकानी पड़ सकती है।

अजीत कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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