महामारी बन गया है दलबदल!

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भारत में दलबदल महामारी का रूप लेता जा रहा है। दलबदल रोकने के लिए बनाया गया कानून पूरी तरह से बेअसर हो गया है। नेताओं के लिए न तो विचारधारा का मतलब रह गया है और न पार्टी के प्रति निष्ठा, प्रतिबद्धता जैसी कोई चीज बची है। सत्ता, पैसे, ताकत के लोभ में नेता इस दल से उस दल में जा रहे हैं। एक पार्टी से लगातार कई बार जीता नेता महज एक चुनाव हारने के बाद पाला बदल कर जीतने वाले के पक्ष में चला जा रहा तो इसे क्या कहा जा सकता है! पूरे कुएं में भांग पड़ी दिख रही है। केंद्र और ज्यादातर राज्यों में सत्तारूढ़ दल ने इसे सांस्थायिक रूप दिया है।

पहले पार्टियों को चुनाव जीतने में सक्षम नेताओं की जरूरत होती थी और इसके लिए दलबदल कराया जाता था। अब सत्ताधारी दल ने इस सिद्धांत को पूरी तरह से बदल दिया है। उसे चुनाव जीतने में सक्षम नेता की जरूरत नहीं है, बल्कि चुनाव जीते हुए नेता की जरूरत है। वह राज्यों में सरकार बनाने के लिए जीते हुए विधायकों से दलबदल करा रही है तो केंद्र में कानून पास कराने के लिए जीते हुए सांसदों से दलबदल करा रही है। जो दलबदल नहीं कर रहे हैं वे भी दलीय निष्ठा से परे जाकर सरकार का समर्थन कर रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि इसे लोकतंत्र की खूबसूरती बताया जा रहा है।

बहरहाल, सवाल है कि इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? क्या एक पार्टी या उसके नेता को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? ऐसा करना पूरे मामले का सरलीकरण करना होगा? यह मामला सिर्फ एक पार्टी या एक राज्य का नहीं है। यह भारतीय राजनीति और व्यापक रूप से समाज का संकट है। करीब 30 साल पहले उपभोक्तावाद का विरोध करते हुए जिस संकट की कल्पना की जाती थी, उसमें सबसे बड़ा संकट नैतिक मूल्यों के पतन का ही था। वह संकट समाज के हर क्षेत्र में साकार होता दिख रहा है। राजनीति का यह संकट उसी की परिणति है।

राजनीति सेवा का माध्यम तो बहुत पहले ही नहीं रह गई थी। पर चुनाव लड़ने और जीतने में धन की भूमिका बढ़ने के साथ साथ इससे जुड़े नैतिक, वैचारिक व मानवीय मूल्यों का और ह्रास होता गया। राजनीति सिर्फ असीमित सत्ता हासिल, बेशुमार धन कमाने और बेहिसाब ताकत प्राप्त करने का माध्यम बन गई। पार्टियों और नेताओं ने इसे ही राजनीति का नीति निर्देशक सिद्धांत बना लिया। दुर्भाग्य यह भी है कि आम लोगों ने भी इसे जस का तस स्वीकार कर लिया। वे कभी अपने नेता से सवाल नहीं पूछते हैं कि जब उन्होंने उसे एक खास पार्टी, खास नेता या विचारधारा के विरोध में चुना था तो वह फिर उसी के साथ कैसे चला गया? लोग सवाल नहीं पूछते हैं इसलिए पार्टियां और नेता बेलगाम होते गए।

पार्टियों ने टिकट देने के लिए जीतने की क्षमता को एकमात्र पैमाना बनाया। चाहे जाति का समीकरण हो, धर्म का हो या नेता के बाहुबली होने का हो या धनबलि होने का हो। अगर वह किसी भी वजह से चुनाव जीत सकता है तो उसे टिकट दी जाती है। फिर वह भला क्यों किसी नीति या सिद्धांत से बंधा रहेगा! तभी कर्नाटक में विधायक जीते थे कांग्रेस और जेडीएस में लेकिन चले गए भाजपा की सरकार बनवाने। गोवा में विधायक जीते थे कांग्रेस, जीएफपी, एमजीपी से लेकिन चले गए भाजपा के साथ, झारखंड में विधायक जीते जेवीएम की टिकट से लेकिन चले गए भाजपा के साथ। यह कहानी देश के सबसे गरीब राज्य से लेकर सबसे अमीर राज्य तक दोहराई जा रही है।

केंद्र और अधिकतर राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा ने राजनीति की इस गिरावट को अपनी ताकत बना लिया है। तभी यह महामारी अब आसानी से नहीं रूकने वाली है। जिसके पास भी ताकत है, धन है और सत्ता है वह अपनी सत्ता को स्थायी बनाने के लिए इन्हीं उपायों का सहारा ले रहा है और आगे भी लेता रहेगा।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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