देश में मंदी के कारण एक तरफ लोगों के हाथ में काम छूट रहा है, दूसरी तरफ जो सेवा में हैं भी उनके वेतन में वृद्धि नहीं हो रही, लिजाहा ऐसे हालात में मूलभूत जरूरतों के किसी हिस्से पर महंगाई की छाया पड़े, तो जिंदगी दुश्वार हो जाती है। यह मौजूदा यथार्थ है और इस पृष्ठभूमि में यूपी में बढ़ी बिजली दरों से आम लोगों को मिलने वाले दर्द की तीव्रता को समझा जा सकता है। यूपी में अब बिजली 12 फीसदी तक महंगी हो गयी है। नया टैरिफ 12 सितंबर से लागू होगा। योगी सरकार की मानें तो 4.28 फीसदी रेग्युलेटरी सरचार्ज खत्म होने से वास्तविक इजाफा 7.41 फीसदी ही होगा। सरकार के बिजली मंत्री का तर्क है कि ग्रामीण इलाकों में बढ़ रही मांग के कारण यह जरूरी हो गया था कि दरों में इजाफा किया जाए ताकि आपूर्ति में कोई अवरोध ना उत्पन्न हो।
तस्वीर यह है कि गरीबी रेखा से नीचे के उपभोक्ताओं को पहले 100 यूनिट तक तीन रूपये की दर से भुगतान करना होता था पर अब यह सुविधा 50 यूनिट तक रह गयी है। गरीब शहरी उपभोक्ताओं के लिए 100 यूनिट पर अनुदानित दर की सुविधा वैसे भी पर्याप्त नहीं थी और अब उसमें पचास फीसदी कटौती से पडऩे वाले आर्थिक बोझ की पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह कहना सही है कि सबको बिजली मिले उसके लिए आयोग को पैसा चाहिए जो बिलिंग के जरिये प्राप्त होता है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं होना चाहिए कि बिजली सेक्टर में घाटे की भरपाई उपभोक्ताओं की जेब से होने लगे। बिजली आपूर्ति की शहरों में क्या स्थिति है, यह किसी से छिपी नहीं है। भले ही चौबीसों घंटे बिजली देने की बात होती हो लेकिन वास्तविकता यह है कि औसत आपूर्ति कमोवेश आज भी 14-15 घंटे ही है।
कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं प्रदेश की राजधानी में ही चौबीसों घंटे बिजली आपूर्ति का दावा दम तोड़ रहा है। स्थिति ये है कि समय के हिसाब से कनेक्शन तो बढ़े लेकिन ट्रांसफार्मर अपग्रेड नहीं हुए। ज्यादातर स्थानों पर पुराने ट्रांसफार्मर ना बदले जाने की स्थिति में क नेक्शनों के बोझ से या तो फुंक जाते हैं अथवा संबंधित इलाके में आधे-आधे घंटे तक बिजली की आपूर्ति बंद हो जाती है। कस्बों और गांवों के उपभोक्ताओं को कि तना कुछ बिजली को लेकर सहना पड़ता होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह सही है कि बढ़ती मांग के अनुरूप राज्य में बिजली उत्पादन नहीं हो पा रहा है। नये बिजली घरों की जरूरत है, उसके लिए निश्चित तौर पर पैसे की दरकार है। लेकिन इस सबके बीच सवाल यह है कि लाइन लॉस कम से कम हो, इसके बारे में गंभीरता से पहल क्यों नहीं होती?
इसके अलावा बड़े पैमाने पर विभागीय मुलाजिमों की सांठ गांठ से बिजली चोरी होती है उसको लेकर कोई नीति क्यों नहीं बनती? बिजली आपूर्ति के हिसाब से बिलिंग में कमी होने पर संबंधित एसडीओ को जवाबदेह क्यों नहीं बनाया जाता? सबको पता है कि चोरी के अलावा सर्वाधिक बकायेदारी सरकारी विभागों, अफसरों, नेताओं और उद्यमियों पर होती है, उसकी वसूली रफ्तार तेजी क्यों नही पकड़ती? इसके अलावा खुद विभागीय स्तर पर आदेश के बावजूद ज्यादातर बिजली कर्मचारी बिना मीटर के मनचाहा उपयोग करते हैं, इसलिए कि बिल तो उनके रैंक के हिसाब से आएगा। इतनी विसंगतियों को दूर किये जाने की बजाय ईमानदार उपभोक्ताओं पर बोझ डालना निश्चित तौर पर प्रीतिकर फैसला नहीं हो सकता, अच्छा होता व्यवस्था में जो छेद मौजूद हैं उसे बंद कि या जाता।