मंगल भवन, अमंगल हारी

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सांप्रदायिक संकीर्णता तथा राजनीतिक स्वार्थ की कैद से श्रीराम मुक्त हुए हैं। यह मुक्ति किसी आराध्य महापुरुष के मंदिर निर्माण की अनुज्ञा के रूप में नहीं देखी जानी चाहिए, वरन यह उस विचार की पराजय है जो अपने तनिक स्वार्थ में, सामाजिक सौाहार्द्र तथा नैतिकता को भी हत्या कर सकता है। श्रीराम मंदिर के नाम पर संघर्ष, सामाजिक तनाव और फिर वोट बैक की राजनीति। नेहरू शाही में इस प्रकरण को अधिक उलझा दिया गया और इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की गई। आजादी के बाद अयोध्या के दोनों समुदाय इस समस्या का हल चाहते थे। वे परस्पर संवाद करने के पक्ष में थे। लेकिन देश के तत्कालीन सत्तासीन नहीं चाहते थे कि यह समस्या हल हो जाए। बात अक्टूबर 1949 की है। अयोध्या के दोनों सम्प्रदायों ने एक सभा का आयोजन किया था, इसमे प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष गोविंद सहाय को आमंत्रित किया। ये कांग्रेस के शीर्ष नेता थे और नेहरू के निकट माने जाते थे। वहां के दोनों सम्प्रदायों की इच्छा थी कि गोविन्द सहाय श्रीराम जन्म भूमि का स्थायी समाधान करने की पहल करें। अयोध्या का कोई भी वर्ग संघर्ष नहीं चाहता था। गोविंद सहाय अयोध्या आए भी, सभा में भाग भी लिया, लेकिन बात मच्छरों के प्रकोप की । असंगत भाषण से सभा में रोष पैदा होना स्वाभिवक भी था।

जो हिंदू-मुस्लिम वहां किसी समाधान की कामना से एकत्र हुए थे, उन्होंने शोर मचाना आरम्भ कर दिया। अंतत: गोविंद सहाय को वहां से भागना पड़ा। गोविंद सहाय के जाने के बाद मंच पर हिंदू महासभा के कार्यकर्त्ताओं और साधु-संतों ने कब्जा कर लिया। पहली बार हनुमान गढ़ी के महन्त बाबा रामदास ने अति उत्तेजक भाषण दिया और अपने समुदाय से आह्वान किया कि कांग्रेस इस विषय को वोट बैंक की खातिर उलझा रही है तथा दूसरे सम्प्रदाय के मन में रोष पैदा करना चाहती है। हमें आपस में लड़ा कर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर रही है। असल में, इस विवाद को हवा देने का कार्य कांग्रेस ने आजादी के बाद से ही करना आरंम्भ कर दिया था। शताब्दियों से राम चबुतरे पर रामनवमी की वृहद पूजा का आयोजन होता था, जिसका उल्लेख अकबरनामा में भी है, लेकिन स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात वहां रामनवमी बनाने की अनुमति नहीं मिली। मुगल काल में भी पूजा अनवरत पूजा अर्चना होती आई थी, लेकिन आजाद भारत में राम नवमी के आयोजन को ही प्रतिबंधित कर दिया गया। आजादी के पहले दो सालों में अयोध्या में रामनवमी का पूजन यथा स्थान पर नहीं हो सका था। यह कांग्रेस की एक रणनीति थी, जिसके आधार पर वह मुस्लिम वोटों को साधना चाहती थी। इससे बहुसंख्यक समाज में निराशा और हताशा के भाव पैदा हुए जो साम्प्रदायिक अलगाव में परिवर्तित होते चले गए।

इसके साथ ही जो वर्ग विवादित स्थल पर बहुसंख्यक वर्ग की पूजा-पाठ से सहमत हुआ करता था, वह भी आपत्ति करने की स्थिति में आ गया। अयोध्या भारत की सप्त पुरियों में सर्वाधिक पवित्र मानी जाती है। हजारों तीर्थ यात्रियों का आगमन वहां होता है, अत: जिस विवाद को कांग्रेस ने पैदा किया, वह पूरे भारत में पहुंच गया। यहां यह भी समझने की आवश्यकता है कि सन 1935 में उत्तर भारत वक्फ बोर्ड का गठन किया गया था लेकिन इस विवादित स्थल को वक्फ बोर्ड की सम्पत्ति में शामिल नहीं किया गया। 16 सितम्बर 1937 को फैजाबाद जिला वक्फ बोर्ड के आयुक्त ने अपनी टिप्पणी में लिखा कि इस स्थल के प्रबंधक सैय्यद मौ झाकी शिया के कथनानुसार इस स्थल पर नमाज अता करने में न तो शिया और न ही सुन्नी रुचि दिखा रहे हैं। सन 1944 के फैजाबाद गजट में लिखा गया कि शिया या सुन्नी या वक्फ बोर्ड ने जन्मस्थान मस्जिद के प्रबंधन में किसी प्रकार की कोई रुचि नहीं दिखाई गई। आजादी से पहले के शासकीय अभिलेखों में कही भी बाबरी मस्जिद शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। अंग्रेजी शासन काल में बनी पुलिस चौकी का भी जन्म भूमि पुलिस चौकी है।

सोमनाथ मंदिर को लेकर भी नेहरू की दृष्टि नकारात्मक ही रही। वे लगातार पटेल के प्रयासों का विरोध करते रहे। सरदार पटेल का प्रभाव मंडल इतना अधिक था कि उसमें नेहरू की नहीं चल सकी। अन्यथा दोनों सम्प्रदाय के मध्य संघर्ष पैदा करने के स्मारक को नेहरू जिंदा रखना चाहते थे। श्रीराम जन्म भूमि विवाद पर भी कांग्रेस का व्यवहार राजनीतिक स्वार्थों से परिपूर्ण नहीं था बल्कि अनेक प्रकरण और भी थे, जहां कांग्रेस ने विवाद को शांत करने का कोई प्रयास नहीं किया। आजादी से पहले कांग्रेस का सबसे खेदजनक व्यवहार उस समय दिखाई दिया जब गुरु गोविंद सिंह के दो पुत्रों के बलिदान स्थल पर लाहौर में बने शहीदगंज गुरुद्वारे पर कुछ संकीर्ण तत्वों द्वारा कब्जा कर मस्जिद बना दी गई, उस पवित्र स्थल को पुन: सिख समाज को वापस दिलाने के प्रयासों में किसी प्रकार का कोई सहयोग कांग्रेस ने नहीं दिया। वह उन लोगों को साम्प्रदायिक कहती रही जो पुनः गुरुद्वारा वापस की मांग कर रहे थे। सन 1935 में सीमान्त प्रांत के हिंदू महासभा अध्यक्ष रायबहादुर बद्रीदास नें सबसे पहले गुरुद्वारा मुक्ति अभियान की शुरुआत की।

अकाली दल के प्रधान मास्टर तारा सिंह ने लंदन की प्रीवी कौंसिल में गुरुद्वारा वापस दिलाने की मांग की। इस मांग पर त्रिसदस्यीय पीठ का गठन किया गया था जिसके प्रमुख न्यायाधीश दीन मुहम्मद थे। पीठ द्वारा 2 मई 1940 को यह गुरुद्वारा सिखों को सौप दिया गया। सरदार तारा सिंह इस प्रकरण के पक्षकार थे। अत: मुकदमें के दौरान ही हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अधिवेशन में जो कलकत्ता में हो रहा था। वहां उनको सम्मानित किया जाना था, इस सम्मान समारोह से कांग्रेस ने अपनी दूरी बना कर रखी। जबकि हिंदू महासभा के अधिवेशनों में कांग्रेस के नेता भाग लेते थे। गांधी, नेहरू, मोतीलाल नेहरू समेत सभी प्रमुख कांग्रेस हिंदू महासभा के अधिवेशनों में जाते थे। आखिर ऐसा क्यों था कि कांग्रेसी नेता साम्प्रदायिक विषयों को जीवित रखने के पक्ष में थे।

वे परस्पर संवाद के माध्यम से समस्याओं का निराक रण करना क्यों नहीं चाहते थे। करतारपुर साहिब गुरुद्वारा पाकिस्तान में कैसे चला गया। यह इस बात को प्रकट करता है कि अंग्रेजों ने जो विभाजन रेखा तैयार कर दी। हमारे नेताओं ने उसे स्वीकार कर लिया। राष्ट्रीय गौरव भारत के आध्यात्मिक मूल्यों तथा सांस्कृतिक धरोहरों से सत्ता के इच्छुक नेताओं का कोई भावनात्मक लगाव नहीं था। करतारपुर साहिब ही नहीं लाहौर का पाकिस्तान में जाना भी आश्चर्य का विषय है क्योंकि विभाजन के लिए जो मानक तैयार किए गए थे, वे लाहौर पर लागू नहीं होते थे। अच्छा हुआ कि देश की शीर्ष न्यायपालिका ने अयोध्या प्रकरण पर संतुलित निर्णय देकर अनेक नेताओं की राजनीति को तटबंधित कर दिया। नहीं तो भारतीय राजनीति को इंसानी खून लग चुका है। वास्तविकता यह है कि कोई भी सम्प्रदाय किसी प्रकार का विवाद नहीं चाहताए यह देश सबका है, सब शांति और सौहार्द्र चाहते हैं। श्रीराम मंदिर निर्णय के पश्चात देश ने ऐसा अनुभव भी कर लिया है।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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