भूरी नदी किनारे चरने जाती और शाम होते-होते वापस अपने खूंटे पर आ खड़ी होती। दीदी उसे बहुत प्यार करती। कहती, ‘ये गाय नहीं है, मेरी संतान है। जब से घर में आई है अनाज की कोठी कभी खाली नहीं हुई।’ बच्चे भी दिनभर भूरी से लिपटकर खेलते। वे उसे चाहे जितना परेशान करें, मगर भूरी कभी उनको झौकारती नहीं थी। वाकई भूरी बड़ी सीधी-सादी थी।
मैं तो कभी-कभार ही दीदी के घर जाती। मगर मुझे भी खूब पहचानती थी वह। उस दिन भी मैं दीदी के घर ही थी। रोज की तरह सुबह-सुबह उसने भूरी को चरने के लिए ढील दी और अपने काम में लग गई। शाम होने को आई, अंधेरा हो चला। मगर यह क्या। भूरी न लौटी। दीदी के साथ जीजा भी बेचैन हो गए। दोनों टॉर्च लेकर नदी की ओर चल पड़े। कछार के सन्नाटे में काफी देर तक खोजते रहे। मगर भूरी न मिली। निराश मन से दोनों लौट आए। सुबह होते ही फिर से भूरी की तलाश शुरू हो गई। दीदी ने आस-पास के टोले-मोहल्ले में उसे तलाशना शुरू कर दिया। कहती, ‘जरूर कोई भूरी को हांक ले गया है और अपने खूंटे से बांध दिया है। नहीं तो वह कहीं भी जाए, लौट आती थी।’ दीदी को भूरी से इतना लगाव था कि कई दिन तक वह ठीक से खाना न खा सकी। दुधारी गाय के खोने का सबको दुख था।
घर के सारे लोग दीदी को भूरी के मिलने की दिलासा देते। मगर मन ही मन उन्हें भी भूरी के दोबारा मिलने पर संदेह था। दीदी थी कि भूरी को भूल ही नहीं पा रही थी। भोले नाथ को मनौती भी मान दी। आखिर जीजा ने किसी तरह उसे समझाया-बुझाया। अब तो बस भूरी के बछड़े को देखकर ही संतोष करना था। बछड़ा भी रोज शाम नदी की ओर ताकने लगता। उसे भी अपनी मां के लौटने की प्रतीक्षा थी। मां को न देख चिल्लाता तो दीदी रो पड़ती।
करीब दो महीने बाद मैं एक रिश्तेदार के घर शादी में गई। उनका ग़ांव दीदी के गांव से कोई दस किलोमीटर दूर था। गांव के पास ही नदी बह रही थी। मेरा मन हुआ जरा नदी तक घूम आएं और मैं कुछ फोटो-शोटो लेने नदी की ओर चल पड़ी। नदी के तट के पास ही छप्पर वाला एक घर था। घर के सामने एक गाय बंधी थी। मुझे वह बिल्कुल भूरी जैसी लगी। मैंने उसकी फोटो ले ली और उसे दीदी के पास भेज दिया। फोटो देख दीदी दूसरे ही दिन अपने बेटे के साथ वहां पहुंच गई। आते ही मेरे साथ उस छप्पर वाले घर की तरफ चल पड़ी। जैसे ही वह उसके पास पहुंची, गाय रंभाने लगी। अब तो मुझे भी पक्का हो गया कि वह भूरी ही है। दीदी उसके गले लग रो पड़ी। जैसे बरसों बाद दो बहने मेले में मिलते ही रो पड़ी हों। तब तक छप्पर से एक आदमी भी निकल कर बाहर आ गया। दीदी को अपनी गाय से गले मिलते देख उसकी आंखों में हैरानी थी। उसने तपाक से सवाल किया, ‘क्या बात है?’
‘यह तो मेरी भूरी है। तुम्हें कहां मिली?’
दीदी ने आंसू पोछते हुए कहा।
‘मैं तो इसे खरीद कर लाया हूं। पूरे पंद्रह हजार में।’
इसके बाद उससे काफी बात-बहस हुई। फिर भी वह नहीं माना। मैंने ही दीदी को समझाया, ‘हो सकता है जिसने गाय चुराई हो उसने इसे बेच दिया हो।’ दीदी आंखों में आंसू लिए वहां से लौट पड़ी, लेकिन दोबारा भूरी को देख लेने का सुकून उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। भूरी मिली भी और नहीं भी।
सरस्वती रमेश
(लेखिका स्तंभकार और व्यंगकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)