मुझे लगता है कि यह कहना उचित होगा कि भारतीय उदारवादियों का प्रभाव हर महीने घटता जा रहा है। इनकी संख्या कम हो रही है, आवाज दब रही है। वामपंथी, समावेशी और प्रगतिवादी होने का दावा करने वालों से बना भारतीय उदारवादियों का समूह पिछले एक दशक में एक के बाद एक जंग हार रहा है। दो राष्ट्रीय चुनाव, कई राज्य स्तरीय चुनाव, मीडिया में प्रभाव, सोशल मीडिया में पहुंच, युवाओं या नीति पर असर, उदारवादी किसी भी मामले में दक्षिणपंथियों से नहीं जीत पाए। यह सच है कि भारत ‘सत्ता ही सबकुछ है’ वाला समाज है, जहां जीतने वाला सबकुछ पाता है। इसलिए अगर दक्षिणपंथी सत्ता में है, तो वह सबकुछ नियंत्रित कर सकता है और उसका बहुत फैन हो सकते हैं। लेकिन इससे भारत जैसे विविध देश में उदारवादियों की घटती लोकप्रियता स्पष्ट नहीं होती। आखिरकार, उदारवादी इतनी बुरी तरह असफल क्यों हो रहे हैं? कारण यह है कि अच्छी मंशा होने के बावजूद उदारवादी गलतियां कर रहे हैं। भारत को उचित विपक्ष की जरूरत है, ताकि उसका लोकतंत्र काम कर सके।
इसमें उदारवादी आवाज और विचारधारा भी शामिल है, जिसकी पहले काफी पहुंच थी। ये रही वे गलतियां जिनसे उदारवादी अपनी बढ़त को अवरुद्ध कर रहे हैं: खुद को उस तरीके से व्यक्त करने में असफल, जिसमें भारतीय समझ सकें। समस्या अंग्रेजी भाषा नहीं है। मुद्दा यह है कि उदारवादी भारत में अमेरिकी उदारवाद के मॉडल की नकल करते हैं। यह काम नहीं करता। हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे, श्वेत-अश्वेत मुद्दों जैसे नहीं हैं। अमेरिका में जाति आधारित आरक्षण नहीं है, इतनी धार्मिक व भाषाई विविधता नहीं है। जो खुद के बुद्धिजीवी होने का दावा करते हैं, उन्हें भारतीय वास्तविकता की समझ नहीं है। वे संवाद में असक्षम हैं। लोगों को कम आंककर बात न करें। लोगों से बात करें। उन्हें सुनें भी। बेशक उदारवादी समानता में विश्वास रखते हैं और नस्लभेद, रंगभेद जातिवाद आदि के प्रति संवेदनशील हैं। हालांकि भारत के कई उदारवादियों की बाकी देश को ऐसा बनाने में रुचि नहीं है। वे सिर्फ बताना चाहते हैं कि वे बाकियों से बेहतर हैं। कभी-कभी एक उदारवादी ही खुद को दूसरे उदारवादियों से बेहतर बताने लगता है।
यह बेतुका है। अपना लक्ष्य खुद को बाकियों से ज्यादा उदारवादी बताना नहीं, भारतीयों को उदारवादी बनाना रखें। शानदार लेख, वंचितों के प्रति संवेदना व्यक्त करना और भाजपा के खिलाफ बोलना, यह सब बेकार है अगर विचारधारा कोई राजनीतिक जीत हासिल नहीं करती। भाजपा के लिए कांग्रेस ही वास्तविक विपक्ष थी, है और रहेगी। उसी कांग्रेस में नेतृत्व का बड़ा संकट है। चूंकि उदारवादियों की संख्या पहले ही कम है, उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व के मुद्दे पर बारीकी से ध्यान देने की जरूरत है। इस मुद्दे को अपने हाल पर छोड़कर, मोदी विरोध में एक और लेख लिखने क्या भाजपा शासित राज्यों की बुरी स्थिति पर बात करने से कुछ हासिल नहीं होगा। अपना ध्यान सिर्फ एक मुद्दे, कांग्रेस नेतृत्व पर ध्यान देने से शायद कुछ हासिल हो जाए। उदारवादियों को लगता है कि ये दो शख्स भारतीय समाज में हर चीज के लिए जिमेदार हैं।
भाजपा की पहली जीत के पीछे बदलाव की इच्छा या मोदी के व्यक्तित्व का आकर्षण हो सकता है। हालांकि दूसरी जीत हमें बताती है कि भारतीय समाज मोदी-शाह जैसे व्यक्ति चाहता है। वे नहीं, तो कल कोई और होगा। इसीलिए उनपर हमला करना इस स्तर पर बेतुका है। उदारवादियों को भारतीयों के मूल्यों और मानसिकताओं पर काम करने की जरूरत है। उन्हें भारतीयों को बताना होगा कि देश के लिए उनकी सोच बेहतर यों है। इसमें उन्हें नैतिकता के आधार पर अपील नहीं करनी चाहिए। उन्हें आत्म-हित पर अपील करनी चाहिए। उदाहरण के लिए आर्थिक विकास के लिए एक शांतिपूर्ण, ज्यादा समावेशी समाज ज्यादा बेहतर होगा, जिसका मतलब होगा आपके और बच्चों के लिए बेहतर नौकरियां। यह कहने से बात नहीं बनेगी कि हम सभी को ‘अच्छे लोग’ बनना चाहिए योंकि ‘ऐसा करना अच्छा है।’ भारत में उदारवादी तेजी से गायब हो रहे हैं।
चेतन भगत
(लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)