भाजपा में अंदर सुधार की दरकार

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली विधानसभा चुनाव अभियान को जिस तरह आक्रामक तेवर दिया, वह बीजेपी की दृष्टि से बेहद अहम है। मोदी सरकार 2.0 के अपने अजेंडे पर शानदार तरीके से काम करने के बावजूद झारखंड में पराजय और उसके पहले महाराष्ट्र में शिवसेना द्वारा विरोधियों के साथ सरकार बनाने से उपजी नेताओं-कार्यकर्ताओं व समर्थकों की निराशा दूर करने का यही एक रास्ता हो सकता था। जब पार्टी का दूसरा शीर्ष नेता सीधे मैदान में उतरकर विपक्ष के खिलाफ हमलावर तेवर अतियार करता है तो इसका असर होता ही है। इससे पार्टी के अभियान को धार मिली है। जब वह कहते हैं कि कोई कुछ भी कर ले हम नागरिकता संशोधन कानून से पीछे नहीं हट सकते तो पार्टी में नीचे से उपर तक संदेश जाता है कि चाहे जो हो हमारा नेतृत्व अपने निर्णय पर कायम है। बीजेपी ने अपने नुकसान की भरपाई की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना से रिश्ता टूटा तो पार्टी ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे की ओर हाथ बढ़ा दिया है। मकसद यह है कि शिवसेना के स्टैंड बदलने से जो शिवसैनिक क्षुब्ध हैं, उन्हें बीजेपी के पाले में लाया जाए।

दिल्ली चुनाव में बीजेपी ने जेडीयू और एलजेपी, दोनों को सीटें दी हैं बावजूद इसके कि इन दोनों का दिल्ली में कोई जनाधार नहीं। कुछ लोग कह सकते हैं कि बीजेपी ने चोट खाने के बाद सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने की रणनीति अपनाई है। एक हद तक बात सही है, लेकिन इसे सही परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। झारखंड में बीजेपी चुनाव हारी लेकिन उसके वोट 31.3 से 33.8 प्रतिशत हो गए। इसी तरह हरियाणा में उसका वोट प्रतिशत 33.20 से बढ़·र 36.5 हो गया। ऐसा नहीं है कि बीजेपी को वोट नहीं मिल रहे, बीजेपी की मूल समस्या अंदरूनी कलह तथा भितरघात है। झारखंड जैसे छोटे राज्य में जब चार दर्जन से ज्यादा विद्रोही खड़े हो जाएं और पार्टी का एक बड़ा धड़ा उनके लिए काम करे तो केंद्रीय नेतृत्व चुनाव नहीं जिता सकता। यह अंदरूनी कलह क्यों है, इस पर बीजेपी लीडरशिप गहराई से विचार नहीं करेगी तो उसे आगे भी विधानसभा चुनावों मे लेने के देने पड़ सकते हैं। विचारधारा वाली पार्टी में असंतोष, विद्रोह या भीतरघात दो ही अवस्था में होता है।

या तो केंद्रीय नेतृत्व विचारधारा से दूर चला जाए या पार्टी के अंदर एक वर्ग के लिए विचारधारा की जगह पद और कद प्रमुख हो जाए। मोदी सरकार में पहला कारण तो हो नहीं सकता क्योंकि धारा 370 खत्म करने जैसे सबसे पुराने वादे पूरे करने वाली सरकार के बारे में नहीं कहा जा सकता कि वह विचारधारा से डिग गई है। कारण दूसरा है। बीजेपी ने पहले 11 करोड़ और दूसरे अभियान से 18 करोड़ सदस्यता का रिकॉर्ड बना लिया, लेकिन ऐसा माहौल नहीं बना सकी कि नए लोग पार्टी में घुल-मिल सकें और पुरानों के साथ उनका तालमेल हो। आंतरिक सुधार तो तभी संभव है जब सारे नेता अपने अहं और क्षुद्र स्वार्थों का त्याग करें। पर यह नहीं हो रहा है। नरेंद्र मोदी के नाम पर लोकसभा चुनाव में एकजुटता हो जाती है, पर विधानसभा में नहीं। दरअसल पार्टी नेतृत्व में केवल ऊपर के दो-चार नेता नहीं आते। निचले स्तर के कार्यकर्ता के लिए हर नेता मायने रखता है। उनके आचार-विचार से उसकी धारणा कायम होती है। अगर कोई केंद्रीय मंत्री गद्दारों के लिए ही सही, गालियों का नारा लगवाएगा तो कार्यकर्ता इससे क्या सीखेगा? बीजेपी में भाषा की मर्यादा सबसे ऊपर रही है।

फिर कोई कार्यकर्ता किसी काम के लिए जिस नेता के पास पहुंचता है उसके व्यवहार से उस वर्कर की सक्रियता तय होती है। अगर नेता उससे मिलते नहीं या किसी तरह मिल जाएं तो उसकी बात सुनने को तैयार नहीं, तो कार्यकर्ता में असंतोष पैदा होगा। वह मन से काम करने को तत्पर नहीं होगा। बीजेपी का आम परंपरागत कार्यकर्ता भावुक होता है। उसको सम्मान दे दीजिए बस वह उसी से जान लगाकर काम करने लगेगा। पार्टी में ऐसे प्रवक्ताओं का अभाव हो गया जो पार्टी कार्यालय या उसके बाहर प्रेस को प्रभावी तरीके से संबोधित कर सकें। टीवी पर बहस करने और किसी मसले पर प्रेस को संबोधित करने में मौलिक अंतर है। अगर इन सबको मिलाकर विचार करें तो बीजेपी की मूल समस्या आंतरिक है। इसमें आप नए साथी बना लें या पुराने साथियों को जहां उनकी कोई हैसियत नहीं, वहां भी सीटें देने लगें, तो इसका अर्थ है कि पार्टी में जितने व्यापक पैमाने पर आंतरिक सुधारों की आवश्यकता है उसकी ओर ध्यान नहीं है।

बीजेपी को समझना चाहिए कि वह अपने अजेंडे पर काम करेगी तो उसे विरोधियों की तरह साथियों का भी विरोध झेलना पड़ेगा। तीन तलाक विधेयक पर कुछ विरोधी दल तो साथ आए, लेकिन जेडीयू जैसे साथी दल विरोध कर रहे थे। धारा 370 पर विरोधी दलों का साथ मिला। नागरिकता कानून पर जिन साथी दलों ने संसद में पक्ष लिया, बाद में उनकी भाषा बदलने लगी। अकाली दल के नेता सुखबीर सिह बादल ने लोकसभा में कहा कि पंजाब में जो सिख हैं उनके कई रिश्तेदार सीमा पार पंजाब में मुसलमान बन गए। उनका स्वर यह है कि इसमें मुसलमानों को भी शामिल करना चाहिए। एनआरसी पर ज्यादातर साथी दल विरोधियों की तरह आग उगल रहे हैं। विदेशों में होने वाली प्रतिकूल टिप्पणियों का सामना भी पार्टी को अकेले ही करना है।

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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