भला नागरिकों की गैर-जिम्मेदारी क्यों?

0
164

वायु – दमघोंटू वायु-प्रदूषण के कारण राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने एक आदेश जारी करते हुए देशभर में 30 नवंबर तक पटाखे जलाने और उसके विक्रय पर रोक लगाई थी। किंतु दीपावली (14 नवंबर) पर लोगों ने एनजीटी द्वारा जारी प्रतिबंधों की धज्जियां उड़ा दी और जमकर आतिशबाजियां की। स्वाभाविक है कि इससे बहुत से सुधी नागरिकों में क्षोभ और आक्रोश उत्पन्न हुआ। अधिकांश को लगा कि हम भारतीय अपने नागरिक कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है। उनकी चिंता इसलिए भी तर्कसंगत है, क्योंकि जहरीली हवा न केवल कई रोगों को जन्म देती है, अपितु यह पहले से श्वास संबंधी रोगियों के लिए परेशानी का पर्याय बन जाती है। वैश्विक महामारी कोविड-19 के कालखंड में तो यह स्थिति “कोढ़ में खुजली” जैसी है।

यह सही है कि कुछ देशों में नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति भारतीयों की तुलना में अधिक जागरुक है। किंतु क्या दीपावली के समय एनजीटी के आदेशों की अवहेलना का एकमात्र कारण भारतीयों में समाज, पर्यावरण और देश के प्रति संवेदनशीलता का गहरा आभाव होना है? क्या यह सच नहीं कि किसी समाज को प्रभावित करने में किसी भी संस्थान या व्यक्ति-विशेष की विश्वसनीयता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है? जैसा एनजीटी का रिकॉर्ड रहा है- क्या उस पृष्ठभूमि में इस संस्था पर लोगों का विश्वास है?

हवा कितनी दूषित है, यह वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) से निर्धारित होता है। यदि यह 50 से नीचे है- तो हवा अच्छी है, 100 तक है- तो स्थिति संतोषजनक है। 101-200 के बीच है, तो मध्यम और यदि उससे ऊपर है, तो खतरनाक। इस पृष्ठभूमि में नवंबर के प्रारंभिक 10 दिनों में दिल्ली-एनसीआर का एक्यूआई 300-500 के बीच रहा था। एक समय यह आंकड़ा 750 तक भी पहुंच गया था। दीपावली और उसके अगले दिन दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का स्तर क्रमश: 394 और 500 एक्यूआई था। कुछ क्षेत्रों में देर-रात यह आंकड़ा 900 के आसपास था।

उत्तर-भारत में वायु-प्रदूषण का मुख्य कारण पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में किसानों द्वारा जलाई जा रही धान पराली और उससे निकलने वाला संघनित धुंआ है। क्या प्रदूषण केवल पराली के धुंए से और दीपावली में अधिक होता है? क्या यह सत्य नहीं कि सड़कों और नदी किनारों पर अवैध अतिक्रमण पर्यावरण को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से क्षति पहुंचा रहे है? वर्षों से मैं स्वयं यमुना नदी के दोनों ओर हो रहे अतिक्रमण और अवैध बसावट को लेकर विभिन्न संस्थानों से संपर्क कर चुका हूं, किंतु परिणाम लगभग शून्य ही रहा है।

इस मामले में मुझे एनजीटी की सक्रियता मुखर तब दिखीं, जब वर्ष 2016 में हिंदू आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने यमुना नदी के किनारे तीन दिवसीय भव्य विश्व सांस्कृतिक महोत्सव का आयोजन किया था। उस समय एनजीटी ने इसपर पांच करोड़ का जुर्माना लगाया था। इस कार्रवाई को लेकर मीडिया ने भी काफी आक्रमक रिपोर्टिंग की थी। विडंबना है कि मुझे ऐसी सघन मीडिया रिपोर्टिंग दशकों पुराने यमुना नदी अतिक्रमण मामले में आजतक नहीं दिख पाई।

वायु-प्रदूषण पर लगाम लगाने हेतु लोगों को अधिक से अधिक पैदल चलने और विद्युत्-वाहन या साइकिल चलाने पर बल दिया जा रहा है। किंतु “लुटियंस दिल्ली” को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहां के पैदलपथ मार्गों या फ्लाईओवर के नीचे पर अवैध अतिक्रमण के कारण पैदलयात्रियों को सुचारू रूप से चलने में कोई समस्या नहीं आ रही हो। क्या इस संबंध में एनजीटी कोई निर्णायक कार्रवाई कर पाया?

क्या पर्यावरण को लेकर केवल हिंदू पर्वों पर सवाल उठाना उचित है? देश के करोड़ों बहुसंख्यक इस बात को अनुभव करने लगे है कि “चयनात्मक रूप” से उनके तीज-त्योहारों को कभी पर्यावरण के साथ, तो कभी सामाजिक, मानवीय, तो कभी आर्थिक सरोकारों से जोड़ा जा रहा है। इस संबंध में स्वघोषित “सामाजिक कार्यकर्ताओं” का कुनबा (स्वयंभू “पर्यावरणविद”, “पशु-अधिकारवादी”, “महिला अधिकारवादी” आदि सहित) कभी अपनी पीड़ा व्यक्त करता है, तो कभी अदालत या एनजीटी जैसे निकाय संस्थाओं का रूख करता है।

क्या अन्य मजहब के पर्वों-परंपराओं जैसे रमजान, मोहर्रम, बकरीद, क्रिसमस आदि को उपरोक्त कसौटियों पर कसा जाता है? जन्माष्टमी पर दही-हांडी को “घातक” बताने वालों को मोहर्रम में ताजिए के समय शोक जताने की परंपरा मानव-जीवन के “अनुकूल” क्यों लगती है? नवरात्रों-करवाचौथ पर व्रत (निर्जल सहित) को “प्रतिगामी” कहने वाले रमजान में रोज़े के समय “प्रगतिशील” क्यों हो जाते है?

यूं तो ईसा मसीह की जयंती पर दुनियाभर में 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाया जाता है। यह अलग बात है कि इसी दिन ही उनका जन्म हुआ था, इसका कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है। अब होली पर पानी और महाशिवरात्रि पर दूध की “बर्बादी” का संज्ञान लेने वाले कभी इस बात का आकलन कर पाए कि क्रिसमस पर घरों, दुकानों और बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स को भिन्न-भिन्न रोशनियों से सजाने में कितनी ऊर्जा “बर्बाद” होती है? दीवाली पर “ग्रीन-पटाखे” छुड़ाने और दुर्गा-पूजा व गणेश-चतुर्थी पर “इको-फ्रेंडली” प्रतिमाओं के विसर्जन पर बल देने वालों ने क्या कभी सजावट और उपहारों में इस्तेमाल “प्लास्टिक क्रिसमस-वृक्षों” या असली पेड़ काटकर बने क्रिसमस-वृक्षों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की? क्रिसमस पर 500 वर्ष पुरानी परंपरा के नाम पर दुनियाभर में करोड़ों- अकेले अमेरिका में ही 30 करोड़ टर्की पक्षी मार दी जाती है। दिवाली पर पटाखों के शोर से पशु-पक्षियों के अधिकारों पर चिंता व्यक्त करने वाले टर्की के विषय में क्यों चुप रहते है?

बकरीद पर करोड़ों जीव (बकरे, ऊंट, गोवंश सहित) निर्ममता के साथ मार दिए जाते है। इस संबंध में कई विचलित करने वाली तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल भी होती है। कई सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि यदि दुनियाभर में गोमांस का सेवन बंद हो जाएं, तो कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी आएगी। परिणास्वरूप, वैश्विक तापमान में हो रही बढ़ोतरी धीमी हो जाएगी। क्या इस संबंध में एनजीटी या किसी स्वघोषित पर्यावरणविद् ने कोई ठोस पहल की?

इस प्रकार संदेह करने के पर्याप्त कारण है कि केवल हिंदुओं के पर्वों को कलंकित करने हेतु प्रायोजित षड्यंत्र रचा जा रहा है। देश में ऐसे कई स्वयंसेवी संगठन और कार्यकर्ता विद्यमान हैं, जो विदेशी धन और विदेशी एजेंडे के बल पर पशु अधिकार, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तिकरण, मजहबी सहिष्णुता और पर्यावरण की रक्षा के नाम पर केवल भारत की बहुलतावादी सनातन संस्कृति और उसकी परंपराओं को चोट पहुंचा रहे हैं, जिसमें उन्हे राष्ट्रविरोधी तथाकथित “सेकुलरिस्टों” और वामपंथी चिंतकों का आशीर्वाद भी प्राप्त है।

भारतीय संस्कृति विश्व की एकमात्र ऐसी संस्कृति है, जहां प्रकृति को ईश्वरतुल्य माना गया है। वैदिककाल से हमारे शास्त्रों-ग्रंथों में नदियों से लेकर अन्य जीव-जंतुओं को विशेष स्थान दिया गया है। आठ वसु- आप (जल), ध्रुव (तारें), सोम (चांद), धरा (पृथ्वी), अनिल (वायु), अनल (अग्नि), प्रत्यूष (सूर्य) और प्रभास (आकाश) इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। परंतु आज यह मूल्यों केवल प्रतीकात्मक बन गए है, जिसका व्यवहारिक दृष्टिकोण बहुत सीमित हो गया है। इसका मुख्य कारण हम भारतीयों का अपनी संस्कृति और परंपराओं से कटाव है, जिसका बीजारोपण ब्रितानियों ने किया था। दुर्भाग्य से इसका अनुसरण वामपंथी और स्वघोषित सेकुलरिस्ट अपने घोषित एजेंडे के अनुरूप पिछले सात दशकों से कर रहे है। इस पृष्ठभूमि में भारतीयों को अपनी मूल जड़ों से जोड़ने में एनजीटी जैसी संस्थाएं सदैव विफल हुई है।

सच तो यह है कि बढ़ते प्रदूषण के बीच दीवाली पर पटाखें जलाने वालों को “संवेदनहीन” या फिर उन्हें “कर्तव्यहीन-नागरिक” कहना अतिशयोक्ति है। प्रारंभिक कोरोनाकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जब “जनता कर्फ्यू” के दौरान देश की सेवा में लगे चिकित्सकों, पुलिसकर्मियों और सैनिकों को धन्यवाद देने हेतु ताली, थाली और घंटी बजाने का आह्वान किया गया था- तब करोड़ों लोगों ने एकजुट होकर “जनता कर्फ्यू” का ईमानदारी के साथ अनुसरण किया। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देश में विश्वसनीयता है और करोड़ों लोगों को उनकी नीयत पर संदेह नहीं है।

सच तो यह है कि भारतीय समाज का बहुत बड़ा वर्ग अब अपने अधिकारों और उसपर हो रहे योजनाबद्ध “प्रहारों” को लेकर सजग हो चुका है। जबतक एनजीटी आदि निकायों में प्रमाणिकता और विश्वसनीयता का गहरा आभाव रहेगा, जनता में उनके प्रति उदासीनता बनी रहेगी।

बलबीर पुंज
(लेखक भाजपा के पूर्व उपाध्यक्ष व सांसद रहे हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here