बॉलीवुड : हिन्दी में नई कहानियों की कमी

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पिछले कुछ दिनों में कई रीमेक की घोषणा हुई है। विक्रम वेधा, सूरअरा पोत्रू और इनसे पहले घोषित हुए अन्नियन, जर्सी जैसे कुछ नाम इसमें शामिल हैं। रीमेक का यह सिलसिला नया नहीं है, लेकिन अब यह तेजी से हो रहा है। खास बात यह है कि जिस निर्देशक ने पहले दूसरी भाषा में फिल्म बनाई, वही उसे हिन्दी में बना रहे हैं। जैसे सैफ और ह्रतिक स्टारर विक्रम वेधा के रीमेक का निर्देशन गायत्री-पुष्कर ही कर रहे हैं, जिन्होंने तमिल में इसका निर्देशन किया था।

इससे दो सवाल उठते हैं। पहला, क्या हिन्दी सिनेमा में ओरिजनल राइटिंग बहुत कम हो चुकी है? आप देखेंगे कि जो भी बड़ी फिल्में बन रही हैं, ज्यादातर रीमेक हैं। जैसे ‘लाल सिंह चड्ढा’ फॉरेस्ट गंप की रीमेक है। ‘राधे’ कोरियन फिल्म की रीमेक थी। हर दूसरे दिन किसी रीमेक के बारे में सुनने मिलता है।

ऐसे में हिन्दी सिनेमा के लेखक कहां हैं, वे ओरिजनल कहानी क्यों नहीं लिख रहे हैं? एक तरह से यह आसान होता है कि जो फिल्म बन चुकी है, उसे उत्तर भारतीय दर्शकों के हिसाब से थोड़ा बदल दें। इसमें शुरू से कहानी लिखने जितनी मेहनत तो नहीं लगती।

दूसरा सवाल यह कि कोई निर्देशक एक बार कोई फिल्म बना चुका है तो उसे वही फिल्म दोबारा बनाने में क्या दिलचस्पी होती है। जैसे ‘कबीर सिंह’ में निर्देशक संदीप वांगा ने ‘अर्जुन रेड्‌डी’ के कई सीन ज्यों के त्यों लिए। ऐसे में एक निर्देशक के लिए रचनात्मकता का मजा कैसे मिलता होगा? पहले 1990 के दशक में भी अब्बास-मस्तान और रॉबिन भट्‌ट जैसे निर्देशक ऐसा करते थे।

वे अंग्रेजी फिल्मों के रीमेक या उनके दृश्यों का इस्तेमाल करते थे। लेकिन तब इंटरनेट इतना सुलभ नहीं था और कॉपीराइट के नियम इतने सख्त नहीं थे। लेकिन अब ओरिजनल फिल्म इंटरनेट पर देखने के लिए उपलब्ध है। लोगों को पता है कि उसमें क्या खास था, रीमेक कैसी बनी है।

ऐसे में क्या निर्देशक वह फिल्म उसी स्तर की दोबारा बना सकेंगे, उसकी अपील को नई फिल्म में भी ला सकेंगे? साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा की जड़ें संस्कृति में मजबूत हैं। जब आप उसी कहानी को निकालकर व्यापक दर्शकों के लिए बनाएंगे तो मूल फिल्म की बारीकियों को कैसे बरकरार रखेंगे। इसलिए मेरे मन में सवाल है कि हम इतनी तेजी से रीमेक की घोषणा क्यों कर रहे हैं?

हिन्दी सिनेमा के लेखक क्यों ओरिजनल कहानी नहीं लिख रहे हैं या उनसे लिखवाई नहीं जा रही? जैसे शाहिद कपूर ‘कबीर सिंह’ की सफलता के बाद कुछ भी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने फिर एक रीमेक ‘जर्सी’ चुनी। शायद स्टार को भी रीमेक सुरक्षित लगते हैं कि चलो एक भाषा में तो यह चल चुकी है तो शायद हिन्दी में भी चल जाए क्योंकि कहानी मजबूत है। तो शायद रीमेक के पीछे स्टार का दबाव, निर्माता का भी दबाव होगा।

हालांकि यह एकतरफा ही नहीं है। हिन्दी फिल्मों का भी दक्षिण में रीमेक बन रहा है। जैसे ‘पिंक’ तेलुगु और तमिल में बनी। यानी हिन्दी फिल्में भी उस तरफ जा रही हैं, लेकिन हिन्दी में कहीं ज्यादा तेजी से दक्षिण की और अंग्रेजी फिल्मों के रीमेक बन रहे हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि दर्शक इस ट्रेंड को कैसे देखते हैं। क्या दर्शकों का बड़ा हिस्सा ऐसा होगा, जिसने ओरिजनल देखी होगी।

पहले तो हमें ज्यादातर ओरिजनल फिल्म देखने मिलती ही नहीं थी। इसलिए ज्यादा तुलना नहीं कर पाते थे। लेकिन अब आसानी से ओरिजनल देख सकते हैं। कुछ तो हिन्दी डबिंग के साथ भी हैं। तो फिर क्या आपको उतना ही मजा रीमेक में आएगा या नहीं? यह अब बड़ा सवाल बन गया है।

अनुपमा चोपड़ा
(लेखिका फिल्मी पत्रिका की संपादिका हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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