बेटों को मर्द नहीं, इंसान बनाओं

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हाल ही में हैदराबाद और उन्नाव में बलात्कार की खौफ नाक घटनाओं के बीच 2008 की एक घटना कौंध गई। भोपाल में आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर स्त्री सशक्तीकरण के कार्यक्रम के अगले ही दिन वहां के स्थानीय अखबारों में एक खबर सुर्खियों में थी। मध्य प्रदेश के एक गांव में पचास वर्ष का एक व्यक्ति अपनी नौ साल की नातिन को मेले में घुमाने ले गया और अकेले लौटा। अगले दिन बच्ची की लाश झाडिय़ों में मिली। बच्ची की उस दिल दहला देने वाली तस्वीर के साथ उसके अपराधी नाना की पीठ की तस्वीर थी, जिस पर गोदना था- मैं मर्द हूं। यह मर्द हमारे समाज की उपज है। यहां सदियों से शिशु के जन्म के साथ ही उसका लिंग देखकर उल्लसित हो थाली बजाई जाती है कि बेटा जन्मा है और बेटी होने पर मुंह लटकाकर ‘दाब दे, गाड़ दे’ की हिदायत दी जाती है। एक ही घर में बेटी के लिए अलग नियम कानून होते हैं और बेटे की परवरिश कुछ पायदान ऊंचे रखकर की जाती है। आज भी अशिक्षित समाज में बेटे को जन्म के साथ ही मर्द होने का अहंकार एक बेशकीमती पूंजी की तरह थमा दिया जाता है। गांव-कस्बों के कुंठित और बेरोजगार लडक़ों के लिए अश्लीलतम पोर्न वीडियो की सहज उपलब्धता में लिप्सा और कुंठा की निकासी का सबसे आसान और कुत्सित तरीका है –एक अदद बच्ची, लडक़ी या औरत को चार-पांच के समूह में घेर उसकी देह को गिद्धों की तरह नोच खाना और फिर उसकी पहचान को इस कदर रौंद देना कि इस कुकर्म का कहीं कोई सुबूत बाकी रह न जाए।

कितने ही मामले साक्ष्य और सबूतों के अभाव में न अखबारों में आ पाते हैं, न उनका कोई संज्ञान लिया जाता है। हर रोज की ये घटनाएं साबित करती हैं कि बीमार मानसिकता वाले कुंठित लडक़ों के मन में बलात्कार की सजा का कोई खौफ नहीं रह गया है। बलात्कार हमारे समाज में हमेशा से होते रहे हैं- घरों के अंदर भी और बाहर भी, पर बलात्कार के बाद आरोपी जघन्य हिंसा और बर्बरता पर उतर आएं, ये खबरें सिर्फ तक लीफ ही नहीं, रातों की नींद उड़ा देती हैं और हम एक अनियंत्रित आक्रोश अपने भीतर महसूस करते हैं। पर इसका यह मतलब हरगिज नहीं कि आवेश में आक र हम हत्या और हिंसा के प्रतिकार में हत्या और हिंसा को ही समर्थन देने लगें। संसद में एक जानी-मानी अभिनेत्री का आक्रोशित बयान कि ऐसे अपराधियों की सजा है- पब्लिक लिंचिंग, हमें अचंभित करता है। बीते कुछ सालों में भीड़ द्वारा गरीब, मासूम और बेकसूर लोगों को पीट-पीटकर मार डालने के ऐसे दहशतनाक मामले सामने आए हैं कि ‘लिंचिंग’ शब्द का इस्तेमाल भी रोंगटे खड़े कर देता है। पिछले सप्ताह हैदराबाद में पुलिसकर्मियों ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए आरोपियों को घटनास्थल पर ले जाकर एक फर्जी कहानी गढ़ उनका एंकाउंटर कर दिया तो समझदार मानी जाने वाली महिलाएं भी पुलिस को सलाम लिखकर गद्गद् हो उठीं। पुलिस का काम एफ़ आई आर दर्ज करना, समय पर घटनास्थल पर पहुंचना, आरोपियों की शिनाख़्त करना, गवाह और सुबूत जुटाना और उन्हें हथकड़ी पहनाकर कानून के हवाले करना है। कानून को अपने हाथ में लेना और आरोपियों को गोली से उड़ा देने का अधिकार न पुलिस को है, न उन्हें इसके लिए शाबाशी दी जानी चाहिए। एंकाउंटर की फेहरिस्त देखें, तो बेहिसाब निर्दोष इन तथाक थित मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं और ज्यादातर एंकाउंटर फर्जी होते हैं।

कानून कहता है कि एक दोषी के छूट जाने की बनिस्बत एक निर्दोष का मारा जाना कहीं बड़ा अपराध है। पुलिस के कानून को हाथ में लेने और जनसामान्य द्वारा उसकी प्रशंसा करने की एक वजह यह जरूर हो सकती है कि हमारे देश में कानून की प्रक्रिया इतना लंबा समय लेती है कि उसका औचित्य ही जाता रहता है। लेकि न इस समस्या का समाधान कानूनी प्रक्रिया में तेजी लाने में है, न कि कानून खुद अपने हाथ में ले लेने में। दरअसल पुलिस भी हमारे उसी मर्दवादी समाज से आती है, जहां कोई औरत हिंसा की रिपोर्ट लिखवाने जाए, तो पुलिसकर्मी हंसते, मखौल उड़ाते और इसे आदमी-औरत के बीच ‘घर का मामला’ या ‘जा बाई, घर जा, यह सब तो होता ही रहता है’ कहकर रफा-दफा करने की कोशिश करते हैं। हिंसा का संज्ञान तभी लिया जाता है, जब महिला संगठन की कोई कार्यकर्ता उनके साथ जाए। आज के समय में कोई मां-बाप अगर कामकाजी बेटी के घर न लौटने पर पुलिस थाने जाएं, तो संभव है पुलिसकर्मी उसे हंसते हुए जवाब दें कि लडक़ी किसी के साथ भाग गई होगी या खुद पलटकर सवाल पूछ डालें कि इतनी रात तक काम पर क्यों जाती है, उसे काबू में रखो। अधिकांश ऐसी घटनाओं में पुलिस के तत्काल रिपोर्ट लिखने या छानबीन करने से दुर्घटना रोकी जा सकती है। हैदराबाद में ही कुछ साल पहले फिल्म के नाइट शो देखकर घर लौटते एक युगल को पुलिस ने हिरासत में लेने के बाद पति को पीटा और पत्नी को वेश्या करार कर उसके साथ दुष्कर्म किया। अगले दिन पति को पीट-पीटकर मार डाला।

पुलिस कस्टडी में कितने बलात्कार होते रहे हैं, इसके सही आंकड़े जुटाने भी मुश्किल हैं। 1972 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में चौदह से सोलह साल की एक आदिवासी लडक़ी से दो हवलदारों द्वारा बलात्कार के मामले में उलटे उस लडक़ी पर ही चरित्रहीन होने के आरोप लगाए गए और अंतत: साक्ष्य के अभाव में हवलदारों को बरी भी कर दिया गया। इसी मामले ने पूरे भारत में नारीवादी आंदोलन को एकजुट और मजबूत किया और देशभर में कई महिला संगठनों का गठन हुआ, जो आज भी सक्रिय हैं। मगर अफसोस कि तथाकथित विकास और प्रगति के रास्ते पर बढ़ते हमारे समाज में अमानवीय बलात्कार की घटनाएं कम होने की जगह बढती जा रही हैं और अब तो उसमें क्रूर और पाशविक हत्या और हिंसा भी जुड़ गई है। हिंसक पुरिषों का बेखौफ हो जाना भारतीय समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है। जिस दिन हैदराबाद पुलिस आरोपियों को घटनास्थल पर ले जाकर और उन्हें गोली से उड़ाकर समाज के एक बड़े वर्ग से एंकाउंटर के लिए तमगे बटोर रही थी, उन्नाव में लगातार बलात्कार की शिकार एक लडक़ी को दिन-दहाड़े पेट्रोल डालकर इसलिए जिंदा जला दिया गया, क्योंकि वह जमानत पर बरी कर दिए गए आरोपियों के खिलाफ रिपोर्ट करने जा रही थी। जलने के बाद भी आग की लपटों से घिरी वह लडक़ी आक्रोश में बेदम होने तक भागती रही। इस घटना को मीडिया ने भी ज्यादा कवर नहीं किया। उन्नाव में ही पहले एक विधायक (कुलदीप सेंगर) के खिलाफ कई महीनों तक केस दर्ज ही नहीं किया गया और इस बीच पीडि़ता के पिता इसी लड़ाई में चल बसे।

दबाव में आकर अंतत: अपराधी विधायक को पार्टी से निकाला गया, तो दिल्ली की यात्रा करती पीडि़ता को उसके चाचा-चाची समेत एक ट्रक से बुरी तरह कुचलने की कोशिश की गई, ताकि कोई भी जीवित न बचे। चाची इस दुर्घटना में मर गई। खौफ और डर का यह आलम था कि उसके दाह-संस्कार में सिर्फ पुलिस वाले वर्दी में तैनात थे, गांव का एक भी आदमी उसमें शामिल नहीं हुआ। अब विधायक जेल में है और पीडि़ता दिल्ली के ट्रॉमा सेंटर में। एक और मामले में एक सांसद चिन्मयानंद के खिलाफ पर्याप्त सुबूत हैं, पर विडंबना यह है कि कानून की छात्रा पीडि़ता जेल में है और आरोपी अस्पताल में। मुजफ्फरपुर के बाल सुधारगृह चलाने वाले ब्रजेश ठाकुर की निर्लज्ज मुस्कान को कैसे भुलाया जा सकता है, जब नाबालिग बच्चियों के बयान रोंगटे खड़े कर देने वाले हों। कहानी का सबक यह है कि रसूखदार वर्ग के अपराधी तो ताउम्र सजा से बच जाते हैं, जबकि बलात्कार के आरोप में गरीब आदमी के बलि का बकरा बन रुपयों की खातिर गुनाह अपने सिर लेने की घटनाएं भी हमारे समाज में देखी गई हैं! ऐसी स्थिति में हर हाल में सजा को त्वरित और सगत करने की जरूरत है। हमारी न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति की कितनी बड़ी त्रासदी है कि 2012 में जिस निर्भया को लेकर समूचा देश सडक़ पर उतर आया था, उसमें बलात्कारियों का दंडित हुआ जाना अभी बाकी है। क्या इतने सीधे मामलों में भी कानून को इतना पेंचदार और लंबित होना चाहिए? लानत है ऐसी व्यवस्था पर,जहां प्रभुताशाली वर्ग कानून पाने का हक दार है, लेकिन औरत की देह के चिथड़े कर देनेवाले दरिंदों के लिए कोई कानून नहीं, जहां लडक़े इंसान नहीं, सिर्फ मर्द होकर इस धरती को रौंद रहे हैं!

सुधा ओरड़ा
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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