बेजोड़ पहाड़ी साहित्य-संस्कृति

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बेशक कुछ लोग इसे दिल्ली के चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी का वोट-चातुर्य कह लें, मगर गढ़वाली-कुमाऊंनी-जौनसारी भाषा अकादमी का गठन कर ‘आप’ ने प्रवासी उत्तराखंडी समाज के सांस्कृतिक सरोकारों को मान्यता देने की दिशा में एक बड़ा काम किया है। लंबे समय से चली आ रही अकादमी की यह मांग उत्तराखंडी समाज का बड़ा सपना बन गई थी। तमाम सरकारें इसे पूरा करने के बजाय पूरा करने की राह की मुश्किलें बताने में ज्यादा दिलचस्पी ले रही थीं। दिल्ली सरकार ने भी चाहे कुछ समय तक ऐसे तर्कों का सहारा लेना जरूरी समझा हो, लेकिन दो वर्ष पहले हिंदी अकादमी की ओर से हर साल दिए जाने वाले पुरस्कारों में गढ़वाली व कुमाऊंनी के साहित्य सृजन को भी शामिल कर उसने क्षतिपूर्ति का कुछ इंतजाम पहले ही कर दिया था। बहरहाल, दिल्ली में पहाड़ी समाज महज मानव संसाधन नहीं, बल्कि अपने अनूठे लोकोत्सवों के माध्यम से यहां की मिली-जुली संस्कृति का परिमार्जक रहा है।

राजधानी में उत्तराखंडी सांस्कृतिक कार्यक्रमों और रंगारंग आयोजनों की धूम साल भर बनी रहती है। उत्तरैणी त्योहार तो अब बाकायदा दिल्ली सरकार के सहयोग से मनाए जाने लगे हैं। अतीत से ही शान-ओ-शौकत और जायकेदार खान-पान के वैभव वाली दिल्ली के सांस्कृतिक मिजाज में होली, ईद- उल-मिलाद, लोड़ी, करवा चौथ जैसे त्योहारों-लोकोत्सवों की परंपरा में हाल के वर्षों में पूर्वांचलियों की छठ और उत्तराखंडियों की उत्तरैणी ने अपना भरपूर रंग बिखेरा है। यह सारा समुच्चय मिलकर राजधानी के बहुआयामी लोक संसार को बहुत समृद्ध बना देता है। जरूरी यह भी है कि इस समुच्चय की हर धारा माटी से जुड़ी पहचान के साथ बहे और नई पीढ़ी इन परंपराओं और संस्कारों को जाने। इसके लिए लोकोत्सवों और लोक भाषाओं से बेहतर औषधि कोई और नहीं हो सकती। किसी भी समुदाय की लोक संस्कृति संबंधित क्षेत्र के भौगोलिक वातावरण से अत्यधिक प्रभावित होती है। उत्तराखंड तो वैसे भी पर्वतों, नदियों और विहंगम घाटियों का प्रदेश है।

इन मनोरम और विकट जगहों पर यहां के अनेक देवी-देवता विराजमान हैं। शिव और शक्ति यहां के लोकोत्सवों का अभिन्न अंग है। यही भौगोलिक स्थितियां एक सामुदायिक लोक संसार रचती हैं। लेकिन कई बार प्रगति की आकांक्षा में भौगोलिकता और इससे जुड़ी पहचान पर संकट मंडराने लगता है। आज विकास और वैश्विकता का समुदायों के सांस्कृतिक सरोकारों पर असर पड़ा है और सबसे ज्यादा संकट पर्वतवासी और वनवासी समुदायों पर मंडराया है। उत्तराखंड में गांव के गांव परिणामस्वरूप वहां का समाज कई तरह की सामाजिक – आर्थिक विषमताओं से जूझ रहा है। साहित्य और संस्कृति के संरक्षण का भी संकट है। देवी-देवताओं के आह्वान की लोक परंपरा और जागरों के रूप में उपलब्ध लोक साहित्य मिटता जा रहा है। अनेक लेखकों व विद्वानों की कालजयी रचनाएं उनके दरकते पुश्तैनी घरों में मिट्टी हो गई हैं। 16वीं शताब्दी में गढ़वाली और कुमाऊंनी में ताम्रपत्रों, लेखों और असंख्य दस्तावेजों के रूप में विपुल साहित्य रचा गया जिसका हिंदी ही नहीं, देश की अन्य भाषाओं की समृद्धि में भी बहुत योगदान रहा है।

इस विपुल संपदा के संरक्षण और इसे शोधार्थियों तक पहुंचाने के लिए उत्तराखंड राज्य की सरकारों से किसी बड़ी पहल की उश्वमफद अभी तक सिरे नहीं चढ़ी है। इस दिशा में पर्वतीय संगठनों की ओर से दबाव बना जाने की जरूरत है। लेकिन कई बार देखा गया है कि सांस्कृतिक संगठन अपनी वास्तविक डजश्वम।दठडरयें की बजाय महज मनोरंजन और धाक जमाने के उद्देश्य तक सीमित रह जाते हैं। सोशल मीडिया के चलते सूचनाओं के सहज व आसान संप्रेषण के कारण भी ऐसा हो रहा है। हालांकि मनोरंजन और अपनी-अपनी संस्थाओं की धाक जमाने पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए, परंतु सिर्फ यही न हो कि नरेन्द्र सिंह नेगी जी-हीरासिंह राणा जी आएं, लोगों के बीच गाएं, लोग थिरकें-नाचें और फिर पर्दा-दरी समेट ली जाए। बेहतर हो कि मनोरंजन के साथ-साथ इन उत्सवों को पूरे समुदाय के बड़े सराकारों/समस्याओं से जोड़ा जाए। ऐसे में सांस्कृतिक संगठनों और संबंधित भाषा अकादमियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

व्योमेश जुगरान
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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