बुलंद भारत की, बुलंद तस्वीर

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ब्रिटिश हुकूमत से बड़ी लड़ाई के बाद देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया। जिस आजादी के लिए शहीद-ए- हिंदुस्तान उधम सिंह, सरदार भगत सिंह के साथ-साथ लाखों बेनुगानाहों को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी पर लटकाया था, कम उम्र में फांसी पर लटकने वाले खुदीराम बोस हों क्या मोहनदास कर्मचंद गांधी,जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ कुर्बान कर दिया। न जाने कितने हजारों लोगों ने यातनाएं झेलकर काले पानी की सजा काटी। जो स्थिति देश वर्तमान अवस्था में है, वह केवल एक प्रश्न पैदा कर रही है कि या इसी आजादी के लिए उन्होंने ने अपना बलिदान दिया था? जब 15 अगस्त के दिन जब देश आजाद हुआ तो स्वतंत्रता संग्राम के संचालक महात्मा गांधी कलकता के नोआखली में हिन्दू-मुस्लिम के दंगें को खत्म करा रहे थे। कलकता से लेकर पूर्वी और पश्चिम पंजाब में दंगा फैला हुआ था। दिल्ली की सडकों पर एक तरफ ख़ुशी का महौल था तो दूसरी तरफ लाशें पड़ी थी और औरतों की अस्मत लूटी जा रही थी। पश्चिम पाकिस्तान से हिन्दुओं और सिखों को खत्म किया जा रहा था।

जबकि पूर्वी पाकिस्तान से मुसलमानों को। मद्रास के सप्ताहिक स्वतंत्र पत्रिका के पंजाब संवाददाता के अनुसार शरणार्थियों के लिए चलाई गई एक विशेष रेलगाड़ी जो बिलकुल ही खाली थी। फिरोजपुर स्टेशन में दोपहर को प्रवेश कर रही थी। ट्रेन का ड्राईवर डर से पीला पड़ा हुआ था और गार्ड की उसके कंपार्टमेंट में हत्या कर दी गई थी। इंजन में कोयला डालने वाले ड्राईवर का सहयक गायब था। वह कहते हैं कि मैं प्लेटफार्म की तरफ गया, ट्रेन के दो डब्बों को छोड़कर सभी खून से भरे हुए थे। तीसरे दर्जे के डिब्बे में खून से सने तीन शव फर्श पर पर पड़े थे। लाहौर और फिरोजपुर के बीच मुसलमानों की हथियार बंद भीड़ ने ट्रेन को रोककर उन सभी लोगों को मार दिया था। लेखिका बेगम किदवई अपनी किताब ‘आज़ादी की छांव’ में लिखती हैं कि दुखियों की पुकार और मजलूमों की आह फरियाद गवर्मेंट हाउस में गूंज उठी, लेकिन हम सब फिर भी खुश थे। चलो खैर, बरसों की मेहनत ठिकाने लगी।

उन्हें उम्मीद थी कि जो हुआ सो हुआ, गुलामी का जुआ तो गर्दन से उतरा। आजादी मिलने के बाद फिरका परस्ती का भूत भी सर से उतर गया। बेशक, मुल्क के दो टुकडे हो गये। लेकिन दोनों अपनों-अपनी जगह खुश तो रह सकेंगे। मगर नहीं, उस दिन भी हममें से बहुतों की किस्मत में मायूसी और नामुरादी लिखी थी। उस रोज भी हमें परायापन और गुलामी का अहसास होना बदा था। ऐसे ख़ुशी के वत भी हमारे आरजुओं को मिटटी में मिलना था। दुनिया के इतिहास में इतने कम समय में करोड़ों की संख्या में लोगों का विस्थापन हो रहा था। भारत की आजादी को शुरू हुए आन्दोलन का देश विभाजन के बाद खत्म हो रहा था। विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 5 लाख लोग मारे गए और तकरीबन 1.45 करोड़ शरणार्थियों ने अपना घर-बार छोड़कर इधर से उधर हुए। 1951 की विस्थापित जनगणना के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गये और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए।

धर्म के नाम पर देश बन गया था और कत्लेआम का कारण यहीं था। हिन्दू-दृमुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे बने हुए थे। कत्लेआम करने वाले कम थे पर तब इन्हीं का बोलबाला था। विभाजन के दौरान लाखों महिलाओं का अपहरण कर अस्मत लूटी गई। लाखों बच्चे अनाथ हो गए और इतनी ही तादात में मारे गए। विभाजन सिर्फ भारत-पाकिस्तान का नहीं हुआ था लोगों की भावनाओं का भी हुआ था। लोगों का एक दूसरे पर अविश्वास बढ़ गया था। लोग खुश तो थे पर दिलों में गम और आंखों में आसूं लिए। सैकड़ों सालों से साथ रहते आ रहे हिन्दू- मुस्लिम साथ नहीं रह सकते हैं, यह बदख्याल ना जाने यूं आया था नेताओं को। जो आज़ादी मिली वो भगत, गांधी, आजाद और राम प्रसाद बिस्मिल की आज़ादी के ख्वाबों का कत्ल था। यह सवाल आज भी सवाल ही है। आज भी देश की अस्सी फीसदी आबादी वही की वहीं खड़ी हैं जहां वह पिचहत्तर साल पहले थी। बल्कि आजाद वो ही हुए हैं जो अंग्रेजों के सिपे सलाहकार हुआ करते थे। यह बात जरूर है कि अब उनका चेहरा बदल गया है। चलों फिर से एक बार आजाद होने की खुशी में गीत गाएं।

सुदेश वर्मा
(लेखक सुभारती मीडिया से जुड़े हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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