बुर्का और घूंघट, दोनों ही जाएं

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केरल की मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी ने श्रीलंका सरकार की तरह अपनी छात्राओं को बुर्का पहनने पर रोक लगा दी है। उसने बुर्का शब्द का प्रयोग नहीं किया है लेकिन कहा है कि छात्राएं ऐसा कपड़ा न पहनें, जिससे उनका चेहरा छिप जाता हो। जाहिर है कि बुर्के में जो नकाब लगा होता है, वह चेहरे को बिल्कुल छिपा देता है। उसके होने पर यह जानना आसान नहीं रहता कि बुर्के के अंदर कौन है? वह आदमी है या औरत है?

आतंकवादी इसी भ्रमजाल का फायदा उठाकर हमला कर देते हैं। इस मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी के लगभग डेढ़ सौ स्कूल चलते हैं। ये भारत के साथ-साथ कई अरब देशों में भी हैं। इस संस्था ने अपने सभी स्कूलों के लिए यह नियम बनाया है। यह नियम बनाते समय इस संस्था ने केरल उच्च न्यायालय के पिछले साल के एक निर्णय को उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘धर्म या आधुनिकता के नाम पर ऐसी वेश-भूषा को मान्यता नहीं दी जा सकती, जो समाज में स्वीकार्य नहीं है।’

याने बिकिनी या बुर्का, दोनों ही केरल के मलयाली स्कूलों में नहीं चल सकते। केरल के कई मुसलमान नेताओं ने माना है कि इस तरह की वेश-भूषा मलयाली सभ्यता के विरुद्ध है। मलयाली मुसलमान अरबों के नकलची क्यों बनें ? इस बारे में मुझे यह कहना है कि एक अच्छे मुसलमान बनने के लिए यह जरुरी नहीं है कि हर बात में अरबों की नकल की जाए।

भारतीय मुसलमानों को इस मामले मे इंडोनेशिया के मुसलमानों को अपना आदर्श बनाना चाहिए। उनके नाम कैसे होते हैं ? सुकर्ण, सुहृत, मेघावती आदि ! वे रामायण और महाभारत की कथा करते हैं और उनके कथानकों पर मनोहारी नाटकों को आयोजन करते हैं। क्या वे हमारे या पाकिस्तानी मुसलमानों के मुकाबले घटिया मुसलमान हैं ? इंडोनेशिया में भी बुर्के पर प्रतिबंध है।

वास्तव में अरबों का बुर्का और भारतीयों की महिलाओं का घूंघट या पर्दा, दोनों ही नारी-अपमान के प्रतीक हैं। हिंदुओं की इस पर्दा-प्रथा का महर्षि दयानंद और आर्यसमाज ने कड़ा विरोध किया था। मुसलमानों में ही कोई ऐसी समाज-सुधारक जमात पैदा क्यों नहीं होती ? दाढ़ी, टोपी, बुर्का, पाजामा, कुर्बानी, मांसाहार- ये ही इस्लाम नहीं हैं। असली इस्लाम तो एक अल्लाह में विश्वास है। बाकी सब बाहरी प्रपंच हैं, जैसे कि हिंदुओं में चोटी, जनेऊ, तिलक, छाप वगैरह हैं।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेकख वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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