भारतीय जनता पार्टी की जीत का दायरा जैसे जैसे बढ़ा है, जैसे जैसे उसका आकार बड़ा हुआ है वैसे वैसे एनडीए का आकार सिकुड़ता गया है। बिल्कुल उसी तरह जैसे 2009 के चुनाव के बाद यूपीए के साथ हुआ था। 2009 के चुनाव में कांग्रेस 207 सीटें जीत कर आई और कांग्रेस के समर्थक बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने लिखना शुरू किया कि ‘टू हंड्रेड इज न्यू टू सेवेंटी टू’ यानी दो सौ का आंकड़ा ही अब 272 का जादुई आंकड़ा है। इससे कांग्रेस ऐसे अहंकार में आई कि उसने सहयोगी पार्टियों को पूछना ही बंद कर दिया। यूपीए एक में सहयोगी पार्टियों के हिसाब से सरकार के फैसले होते थे। 25 सीटों वाले लालू प्रसाद सरकार के फैसलों में दखल रखते थे। पर 2009 में लालू प्रसाद सिमट कर पांच सीट पर आ गए और उनको सरकार में जगह तक नहीं मिली।
ऐसा बहुत सी पार्टियों के साथ हुआ। इसका नतीजा यह हुआ है कि 2014 आते आते पार्टियों ने कांग्रेस को छोड़ना शुरू कर दिया। एक एक करके उसकी लगभग सारी सहयोगी पार्टियों ने उससे नाता तोड़ लिया। 2009 की जीत के अहंकार में कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में वाईएसआर रेड्डी के एक दुर्घटना में निधन के बाद उनके बेटे जगन मोहन को मुख्यमंत्री नहीं बनाया, जबकि पार्टी के डेढ़ सौ विधायक उनके पक्ष में थे। तभी 2014 से पहले आंध्र में पार्टी टूटी और उसके बाद से राज्य में दो विधानसभा और दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का खाता नहीं खुला है। ममता बनर्जी पहले ही यूपीए से अलग हो गई थीं। 2014 के लोकसभा चुनाव तक ले देकर एनसीपी और मुस्लिम लीग जैसी इक्का दुक्का पार्टियां ही कांग्रेस के साथ बची थीं।
लगभग वैसी ही स्थिति भारतीय जनता पार्टी की हो रही है। हालांकि भाजपा की स्थिति अभी कांग्रेस जैसी कमजोर नहीं हुई है। तभी यह भाजपा के लिए बहुत चिंता की बात है कि उसके केंद्र में सत्तारूढ़ होने और सर्वशक्तिशाली नरेंद्र मोदी व अमित शाह के कमान में होने के बावजूद उसके सहयोगी उसे छोड़ कर जा रहे हैं। अगर अभी सहयोगी पार्टियों का यह रवैया है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि मोदी व शाह और भाजपा की ताकत कम होगी तो क्या होगा!
बहरहाल, भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगियों में से एक शिव सेना ने उसका साथ छोड़ दिया है। चुनाव पूर्व गठबंधन करके एक साथ चुनाव लड़ने वाली पार्टी ने चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद को बहाना बना कर भाजपा का साथ छोड़ दिया। इतना ही अपनी धुर वैचारिक विरोधी एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिला लिया। जाहिर है कि यह सिर्फ मुख्यमंत्री पद का मामला नहीं है, बल्कि इसके पीछे कुछ और कहानी होगी। निश्चित रूप से भाजपा के मौजूदा नेतृत्व ने शिव सेना के नेतृत्व के साथ अपने सत्ता के अहंकार में कुछ ऐसा किया है, जिसका बदला पहला मौका मिलते ही शिव सेना ले रही है। ध्यान रहे पिछली लोकसभा में 17 और इस बार 18 सांसद होने के बावजूद शिव सेना का एक ही मंत्री केंद्र में रहा। सत्ता में हिस्सेदारी नहीं देने की भाजपा की सोच भी इसका एक कारण हो सकती है।
शिव सेना की देखादेखी झारखंड में भाजपा की दो दशक पुरानी सहयोगी आजसू ने भी उसका साथ छोड़ दिया। टिकट बंटवारे में आजसू ने 19 सीटें मांगी और भाजपा नौ सीट से ज्यादा देने को राजी नहीं हुई तो उसने भाजपा के उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारने शुरू कर दिए। बिहार में भाजपा की दो सहयोगी पार्टियां जनता दल यू और लोक जनशक्ति पार्टी अपने दम पर अकेले झारखंड में चुनाव लड़ रहे हैं। ध्यान रहे नया राज्य बनने के बाद झारखंड में भाजपा की पहली सरकार जनता दल यू के छह विधायकों की मदद से ही बनी थी।
पिछले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा की सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी ने उसका साथ छोड़ दिया था। करीब चार साल तक साथ रहने के बाद चंद्रबाबू नायडू ने भाजपा की सरकार छोड़ी और उसका साथ छोड़ा। दशकों तक कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले नायडू ने कांग्रेस के साथ भी तालमेल का प्रयास किया। भाजपा का साथ छोड़ने से पहले ही केंद्रीय एजेंसियों ने उनके नेताओं पर कार्रवाई शुरू कर दी थी और बाद में उनकी पार्टी तोड़ कर उसके चार राज्यसभा सांसदों को भाजपा में मिला लिया गया। केरल में भाजपा से तालमेल करने वाले नतेशन और भी उससे अलग हो गए हैं तो बिहार में भाजपा के सहयोगी रहे उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी भी एनडीए से अलग हो गई है। एनडीए में रहे जीतन राम मांझी भी अलग हो गए हैं। उत्तर प्रदेश में सुहेलदेव समाज पार्टी भी भाजपा से नाता तोड़ चुकी है। ये सारी छोटी पार्टियां हैं पर इनको मिला कर एनडीए के सहयोगियों की संख्या 41 तक पहुंचती थी पर अब उसके साथ गिनी चुनी पार्टियां हैं और उनके नेता भी तेवर दिखाने का कोई मौका नहीं चूकते हैं। जैसे पिछले दिनों अकाली दल और जनता दल यू के नेताओं ने दिखाए।
सुशांत कुमार
लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं