बड़े दिल से बड़ी लकीर खींची जाए

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सुन्नी वक्फ बोर्ड तो तय कर चुका है वो रिव्यु पिटिशन नहीं डालेगा। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रिव्यू पिटिशन या पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का फैसला क्यों किया यह तो पता नहीं, लेकिन मुझे यह खूब पता है कि उनका फै सला उनके साथ-साथ देश को भी शर्मसार करेगा। जीत का रहस्य यह है कि वह संयम में शोभा पाती है। हार का खोखलापन यह है कि वह बेवजह जगम को हरा करती रहती है। अयोध्या विवाद का जो फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दिया है, उसके बाद हिंदू, मुसलमान तथा देश के अन्य धर्मावलंबियों ने खासी समझदारी दिखाई है। ऐसा नहीं है कि यह फैसला सबको संतोषजनक लगा है। शिकायतें हैं, लेकिन संयम का अहसास भी है। सबको संतोषजनक लगे, ऐसा कोई रास्ता अगर होता तो इस मामले के यहां तक पहुंचने की नौबत ही क्यों आती! ऐसा कोई रास्ता था नहीं। न हिंदुओं के पास, न मुसलमानों के पास, न सरकारों के पास, न समाज के पास! इसलिए हमने अदालत को इसमें शरीक किया और सबने यह सार्वजनिक घोषणा की कि अदालत का फैसला हमें मंजूर होगा। तो अदालत का फैसला आ गया, उसे नामंजूर कैसे किया जा सकता है, यही करना था तो पहले ही कहते कि हमारे मनमाफिक फैसला आएगा तो कबूल करेंगे, नहीं तो खारिज करेंगे। अदालत के फैसले में अंतर्विरोध भी हैं और कई मामलों में भटकाव भी है। उनकी चर्चा भी हुई है। लेकिन सबने यह तो कहा ही है कि हम फैसले को अमान्य नहीं करते हैं।

फैसले की विसंगतियां सामने लाना उसका मजाक उड़ाना या उससे इनकार करना नहीं बल्कि मानवीय प्रयासों की सीमा बताना है। यही भूमिका ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी लेनी चाहिए। बाकी पक्षकारों की तरह उसने भी अदालत में अपनी दलीलें रखी ही थीं। अदालत को उनमें सार कम लगा, उसने विपरीत फैसला दिया तो यह हार या अपमान नहीं, असहमति है। हम जिस संवैधानिक व्यवस्था के तहत रहते और अपना देश चलाते हैं, उसमें हमारी सर्वोच्च अदालत सहमति-असहमति का आखिरी दरवाजा है। हमने स्वीकार किया है कि यहां से आगे सहमति-असहमति नहीं, निर्णय होगा और सभी उसे मान कर चलेंगे। हम यह निर्णय कबूल न करें या अंत-अंत तक कबूल न करने का तेवर दिखाते रहें तो यह पराजित मानसिकता को अधिक तीखा बनाएगा और दूसरे पक्ष को भी कटुता पर उतरने के लिए मजबूर करेगा। मैं जानता हूं कि हिंदुत्व धड़ा इतना संयम मंदिर बनाने की अनुमति पा जाने के कारण ही दिखा रहा है, लेकिन अदालती न्याय में ऐसा हरदम ही होता है। मुस्लिम समाज को समझना चाहिए कि मस्जिद के विवाद को पीछे छोड़ कर हम जितनी जल्दी आगे निकल जाएंगे, हिंदुत्व का विषदंत उतनी ही जल्दी भोथरा हो जाएगा। वहां भी ऐसे तत्व हैं जो चाहते हैं कि चिंगारी छिटके, जहरीली हवा चले और आग भडक़े ! हमें उनके हाथ में खेलना नहीं है, उनको बेअसर करना है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के वर्तमान अध्यक्ष गयूरुल हसन रिजवी ने भी बयान देकर मुस्लिम समाज को आगाह किया है कि पुनर्विचार याचिका का विचार प्रतिकूल परिणाम लाएगा।

क्या अभी- अभी जिस विवाद की इतनी लंबी सुनवाई हुई है, उस संदर्भ में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा कोई एक दम नया साक्ष्य लेकर आया है जिससे इस फैसले की बुनियाद ही बदल जाए/ मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई साक्ष्य किसी के हाथ लगा है। तब सारा मामला साक्ष्यों के आधार पर बनने वाली मनोभूमिका का है। 5 जजों की विशेष संविधान पीठ के सामने हमने जो कुछ कहा, दिखाया, बताया उन सबके आधार पर ही अदालत ने हर तरह की संभावनाओं को तौलते हुए एक मनोभूमिका बनाई और वही फैसले के रूप में हमारे समक्ष रखा है। एक पक्ष को मंदिर बनाने के लिए संगठन खड़ा करने की अनुमति मिली तो दूसरे पक्ष को 5 एकड़ जमीन मिली जिसका वे मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं। अभी तो वह जमीन का टुकड़ा भर है, पूरा मुस्लिम समाज जमीन के उस टुकड़े को जमीर की राष्ट्रीय आवाज में बदल दे सकता है। जमीर, जो हिंदू या मुसलमान नहीं होता है, खालिस इंसान होता है। एक बड़ी लकीर खींचने का ऐसा वक्त हमारे हाथ में आ गया है, जिसके आगे फिर कोई दूसरी मस्जिद, मंदिर, चर्च या गुरुद्वारे का सवाल खड़ा नहीं कर सकेगा।

पराजय या डर की मनोभूमिका होगी तो हम यह काम नहीं कर सकेंगे। आत्मविश्वास से भरा और पुरानी सारी शंकाओं- कुशंकाओं को पीछे रख कर, पुरानी लिखावटें मिटा कर, भारतीय समाज का एक बड़ा घटक सारे समाज को संबोधित करते हुए, साथ लेते हुए कुछ नया लिखने की कोशिश करे, यह वैसा अवसर है। अदालत ने चाहा हो या न चाहा हो, उसके इस फैसले को हम ऐसे अवसर में बदल सकते हैं। अभी समाज में ऐसी ग्रहणशीलता बनी है। इसे पुनर्विचार याचिका वगैरह डालकर हमें खोना नहीं चाहिए। गांधी ने आजाद भारत में धर्मों की जिस भूमिका को रेखांकित करने की कोशिश की थी, उसको समझने और उस दिशा में मजबूती से बढऩे का यह समय है। आज गति नहीं, दिशा महत्वपूर्ण है। क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कोई ऐसी पहल कर सकेगा कि 5 एकड़ जमीन का वह टुकड़ा भारतीय समाज के स्वस्थ तत्वों की साझेदारी का नमूना खड़ा करे/ जिन्हें आकाश चूमता मंदिर बनाना हो वे बनाएं, जमाना तो यह भी देखेगा कि उनके पांव किस कीचड़ में सने हैं। बकौल ‘फैज’- यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क / न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई/ यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल/ न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई।

कुमार प्रशांत
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के चेयरमैन हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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