बंगाल में एडवांटेज ममता है !

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पश्चिम बंगाल में अगले चार महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल करने के लिए चुनाव लड़ेंगी तो भाजपा पहली बार सत्ता हासिल करने के लिए लड़ेगी। वाम मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन करके लड़ेंगे, लेकिन उनकी लड़ाई अपनी प्रासंगिकता और पहचान बचाए रखने की लड़ाई होगी। पिछले चुनाव में भी समूचा लेफ्ट मोर्चा राज्य की 294 में से महज 26 सीटें हासिल कर पाया था। सोचें, तीन दशक से ज्यादा समय तक राज करने वाली पार्टी विधानसभा की दस फीसदी सीटें भी नहीं जीत पाई! लेफ्ट के साथ लड़ने का कांग्रेस को कुछ फायदा हुआ था और वह 44 सीट जीत गई थी पर उसमें से भी ज्यादातर विधायक तृणमूल कांग्रेस में जा चुके हैं। इस बार कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के लिए अपना पिछला प्रदर्शन दोहराना भी मुश्किल होगा।

ऐसा इसलिए होगा क्योंकि तृणमूल कांग्रेस और भाजपा ने चुनाव की घोषणा से पहले ही मुकाबला आमने-सामने का बना दिया है। हालांकि इस आमने-सामने के मुकाबले के बावजूद पश्चिम बंगाल का चुनाव बहुत सीधा नहीं है। इसके कई कारण हैं। इसे समझने के लिए हाल में हुए बिहार चुनाव को लिया जा सकता है। बिहार में भी जदयू-भाजपा गठबंधन का सीधा मुकाबला राजद-कांग्रेस के महागठबंधन से था। लेकिन इन दोनों के अलावा भी चुनाव में कई कोण बन गए थे। एक उपेंद्र कुशवाहा और ओवैसी का मोर्चा था तो दूसरा पप्पू यादव का मोर्चा था और एक कोण अकेले लड़ कर चिराग पासवान की लोजपा ने भी बनाया था। इन तीनों की वजह से चुनाव नतीजे प्रभावित हुए। ओवैसी ने अगर राजद-कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया तो चिराग पासवान ने एनडीए को और उसमें भी खासतौर से नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को।

इसके बावजूद एनडीए जीता तो उसका कारण नीतीश कुमार थे। एनडीए का एक्स फैक्टर नीतीश कुमार थे। उनके मुकाबले महागठबंधन के तेजस्वी यादव लोगों को जमे नहीं। उनकी साफ-सुथरी छवि और उनका अनुभव दोनों काम आया। बंगाल के चुनाव में यहीं एडवांटेज ममता बनर्जी के साथ होगा। उनका कामकाज का लंबा अनुभव है और शारदा चिटफंड या नारदा स्टिंग के तमाम हल्ले के बावजूद ममता की छवि बेईमान नेता ही नहीं है। बंगालियों की नजर में अब भी बंगाल की शेरनी हैं और राष्ट्रीय नेता हैं। ध्यान रहे बंगाल के लोगों में एक किस्म का श्रेष्ठता बोध है, जिसकी वजह से वे चाहते हैं कि उनका जो नेता हो वह देश का भी नेता हो। वे ऐसा नेता नहीं चाहते हैं, जो सिर्फ बंगाल का बंगाल के एक खास हिस्से का नेता हो। इस नजरिए से देखें तो भाजपा के पास ममता का विकल्प नहीं है। तभी भाजपा बड़ी बेचैनी से इस प्रयास में थी कि किसी तरह से सौरव गांगुली पार्टी में शामिल हो जाएं तो उनको मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया जाए। अगर ऐसा हो जाता तो तुरंत खेल पलट जाता क्योंकि गांगुली राष्ट्रीय आईकॉन हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो ममता का एडवांटेज बना रहेगा, वे बंगालियों की पहली पसंद बनी रहेंगी और इसका नतीजा यह होगा कि उम्मीदवारों के प्रति कितनी भी नाराजगी हो नेता की छवि पर वोट मिल जाएगा।

ऐसा नहीं है कि यह कोई अनहोनी चीज है। राष्ट्रीय राजनीति में भी ऐसा ही हो रहा है। भाजपा को नरेंद्र मोदी की छवि पर वोट मिल रहे हैं। वे और उनकी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में कहा कि उम्मीदवार को मत देखिए, सीधे मोदी को वोट दीजिए। बंगाल में भाजपा के पास कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसके बारे में वह कह सके कि उम्मीदवार को नहीं अमुक नेता को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट दीजिए। बंगाल की अस्मिता और बंगालियों के श्रेष्ठता बोध को संतुष्ट करने के लिए ऐसा जरूरी है। वाम मोर्चा के खत्म होने का कारण भी यहीं है कि वह इस श्रेष्ठता बोध को संतुष्ट नहीं कर सकी। ज्योति बसु, सोमनाथ चटर्जी, गुरदास दासगुप्ता जैसे नेताओं के पास लेफ्ट मोर्चे पास कोई बचा नहीं, जिसका राष्ट्रीय कद हो। वाम का नेतृत्व शिफ्ट होकर दक्षिण भारत के नेताओं के हाथ में चला गया और धीरे-धीरे पूरा वाम मोर्चा बंगाल में अप्रासंगिक हो गया।

ममता के साथ दूसरा एडवांटेज यह है कि भाजपा के पास हर सीट पर लड़ने के लिए अच्छे उम्मीदवार नहीं हैं। इसलिए वह इधर-उधर से उम्मीदवार जुटा रही है। तृणमूल कांग्रेस के भी ऐसे विधायक या पूर्व विधायक भाजपा में जा रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर को तृणमूल की टिकट नहीं मिलनी थी। उनके खिलाफ क्षेत्र में एंटी इन्कंबैंसी है। वह सिर्फ पार्टी बदल देने से दूर नहीं हो जाएगी। पार्टी बदल देने से एंटी इन्कंबैंसी तभी दूर होती है, जब कोई बड़ा नेता हो, जिसके नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा हो। बंगाल में ऐसा भी नहीं है। यानी कोई बड़ा नेता नहीं है, मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं है और उम्मीदवार भी या तो कमजोर हैं या दूसरी पार्टियों से आए एंटी इन्कंबैंसी झेल रहे नेता हैं।

ममता के साथ तीसरा एडवांटेज यह है कि बाहर से आ रहे नेताओं को लेकर पार्टी में नाराजगी है। पार्टी के कई पुराने नेता इस बात से खफा हैं और उन्होंने सार्वजनिक रूप से नाराजगी जाहिर भी की है। जमीनी स्तर पर जो नेता चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे उनके साथ भी तृणमूल या कांग्रेस, लेफ्ट से आए नेताओं का तालमेल बनना मुश्किल है। ऊपर से तृणमूल से आए दो नेता, जिनके ऊपर भाजपा लगभग पूरी तरह से निर्भर है उनमें आपस में नहीं बनती है। मुकुल रॉय और सुवेंदु अधिकारी के बीच तालमेल बनाना भी भाजपा के लिए सिरदर्द है। अब चूंकि समय कम है इसलिए नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बैठा पाना मुश्किल लग रहा है।

ममता के साथ चौथा एडवांटेज यह है कि उनका सीधा मुकाबला भाजपा से है और इस वजह से बंगाल में असदुद्दीन ओवैसी की कार्ड चलना थोड़ा मुश्किल है। कह सकते हैं कि जब बिहार में ओवैसी का कार्ड चला तो बंगाल में क्यों नहीं चलेगा? बिहार में इसलिए चला क्योंकि मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार का चेहरा प्रोजेक्ट किया हुआ था। और नीतीश कुमार से बिहार के मुसलमानों को कोई समस्या नहीं है। नीतीश के 15 साल के राज में सरकार ने उनके लिए बहुत कुछ किया है। इन 15 सालों में दंगे-फसाद नहीं हुए और नफरत वाली राजनीति नहीं हुई। सरकार ने कोई भेदभाव नहीं किया। इसलिए मुसलमान बहुत सहज भाव से थे और इसलिए उनके कुछ वोट ओवैसी की पार्टी को मिल गए। वहां मुसलमानों ने इस सोच में वोट नहीं दिया कि भाजपा को हराना है। इसलिए वोट बंटे। बंगाल में वह स्थिति नहीं है। भाजपा बुरी तरह से चुनाव का ध्रुवीकरण कराना चाहती है और राज्य की 29 फीसदी मुस्लिम आबादी को पता है कि ममता हारीं तो भाजपा की सरकार बनेगी और भाजपा का कोई हार्डकोर नेता मुख्यमंत्री बनेगा। इसलिए बंगाल में वोट बंटने की संभावना बिहार के मुकाबले बहुत कम है।

तन्मय कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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