फैसले पर अमल जरूर

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इन दिनों से न्यायपालिका से जन-पक्षीय फैसले कम ही आते हैं। इसलिए जब ये आते हैं, तो उन पर पहली प्रतिक्रिया आश्चर्य की होती है। ऐसा ही एक फैसला पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से आया। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार की तरफ से जारी अधिसूचना को रद कर दिया। उस अधिसूचना के तहत मज़दूरों के कई अधिकारों को रद कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महामारी का हवाला देकर मज़दूरों के समान और उनके अधिकारों के लिए बने कानूनों को ख़त्म नहीं किया जा सकता। दरअसल, राज्य सरकार ने कोरोना संकट के नाम पर कारखानों को फैटरी एट- 1948 के तहत निर्धारित प्रति दिन काम कराने के घंटे, छुट्टी देने, भुगतान करने आदि से संबंधित प्रावधानों से छूट दे दी थी। मगर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, केएम जोसेफ और इंदु मल्होत्रा की खंडपीठ ने कहा कि महामारी का हवाला देकर मजदूरों के समान एवं उनके अधिकारों के लिए बने कानूनों को खत्म नहीं किया जा सकता। इस संबंध में कोर्ट ने कहा कि फैटरीज एट की धारा पांच की परिभाषा के तहत महामारी कोई ‘पब्लिक इमरजेंसी’ नहीं है, जिससे देश की सुरक्षा को खतरा हो।

राज्य सरकार ने अपनी अधिसूचना में कहा था कि सार्वजनिक आपातकाल जैसी स्थिति पैदा हो जाने के कारण वह कारखानों को छूट दे रही है। राज्य ने अधिनियम की धारा 5 के तहत अपनी शतियों का उपयोग करते हुए अधिसूचना जारी की थी। इस नियम के तहत केवल सार्वजनिक आपातकाल के दौरान छूट देने की इजाजत सरकार को है। राज्य सरकार ने ओवरटाइम के लिए दोहरे वेतन के भुगतान की शर्त को भी खत्म कर दिया था। यानी नए नियम के तहत ओवरटाइम का भी भुगतान सामान्य समय की दर से करने का प्रावधान कर दिया गया था। यह आदेश अप्रैल से 19 जुलाई 2020 के बीच लागू किया जाना था। उसे गुजरात मजदूर सभा एवं ट्रेड यूनियन सेंटर ऑफ इंडिया ने कोर्ट में चुनौती दी थी। याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि ये बेहद चौंकाने वाला कदम है। जब कोविड-19 के कारण आराम करने और स्वस्थ रहने की सलाह दी जा रही है, ऐसे में सरकार काम के घंटे बढ़ा रही है। इस नई अधिसूचना के तहत श्रमिकों से ज्यादा काम कराया जाता और कानून के अनुसार उन्हें भुगतान भी नहीं किया जाता। उससे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और खराब होने का अंदेशा था।

अब ये आशंका कोर्ट ने दूर कर दी है। पर साथ ही जरूरी है कि इस फैसले पर अमल भी हो। अमूमन फैसले होते हैं और उन्हें आधा-अधूरा ही लागू किया जाता है। सरकारें तो कुछ करेंगी नहीं लेकिन एक दिन सुप्रीम कोर्ट को बाल मजदूरी को लेकर भी कोई पुख्ता फैसला करना होगा। क्योंकि बाल मजदूरी घटी नहीं बल्कि बढ़ी है। किसी भी सभ्य समाज के लिए ये शुभ संकेत नहीं हैं। हाल ही में पश्चिम बंगाल आरटीई फोरम और सीएसीएल की ओर से किए गए ताजा सर्वेक्षण में कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान पश्चिम बंगाल में ऐसे बच्चों के बीच बाल मजदूरी बढ़ी है, जो पहले स्कूल जाते थे। ये हाल पूरे देश का है। कोरोना महामारी की वजह से छह महीने से तमाम स्कूल बंद हैं। ऑनलाइन पढ़ाई शुरू भी हुई है, लेकिन इंटरनेट और स्मार्टफोन या कंप्यूटर तक पहुंच नहीं होने की वजह से भारी तादाद में स्कूली बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। ऐसे में घर-परिवार की सहायता के लिए उनको मजदूरी करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। मोटे अनुमान के मुताबिक देश में पांच से 18 साल तक की उम्र के मजदूरों की तादाद 3.30 करोड़ है।

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