हमारे संविधान में सभी जाति, धर्म के लोगों को समान अधिकार दिये गये हैं। लेकिन हमारे राजनेता इससे कहीं हटकर अपनी सोच बनाते हैं। अपनी गद्दी को संभालने या फिर उस पर काबिज होने के लिये। भारत में यह तुष्टिकरण की राजनीति वर्षों से सिर चढ़कर बोल रही है और इस तुष्टिकरण राजनीति की शुरूआत नेहरू के जमाने में कश्मीरियों के साथ और फिर अगर हम देखें तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण शाहबानो केस में मिला। शाहबानो पांच बच्चों की मां थी और 62 वर्षीय इस महीला को मौहम्मद खान ने तलाक दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपराध दण्ड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय दिया कि यह हर किसी पर लागू होता है चाहे वह किसी भी जाति का या किसी भी समुदाय का हो और फैसला शाहबानो के हक में दिया और उसके शौहर मौहम्मद खान को गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया। उस समय राजीव गांधी की सरकार थी और उनके पास प्रचंड बहुमत था। आगे आने वाले चुनावों को देखते हुए राजीव गांधी के कुछ सलाहकारों ने उन्हें मुसलिम तुष्टिकरण की राजनीति करने का सुझाव दिया और ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड जो इस फैसले का विरोध कर रहा था परोक्ष रूप में उस समय की सरकार ने उसका साथ दिया और एक साल के अंदर मुसलिम महिला (तलाक संरक्षण अधिकार) अधनियम 1986 पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। कहा जाता है कि यह मुसलिम धर्मगुरूओं के दबाव में किया गया और उस समय सरकार की निगाहें मुसलिम वोट बैंक के ऊपर थी।
तुष्टिकरण का दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण राम मंदिर का ताला खुलवाने की घटना थी। जिसमें केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रियों के इसारे पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री को राम मंदिर का ताला खुलवाने के लिये प्रेरित किया गया। यहां दोनों ही घटना तुष्टिकरण की राजनीति को बढ़ावा देने वाली है। लेकिन अगर हम देखें तो इन सबके बावजूद उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान या हक कहें कि भारत के किसी भाग में लंबे समय तक तुष्टिकरण की राजनीति कर कोई भी अधिक समय तक फल फूल नहीं पाया। लालू ने एक कदम और आगे जाकर पिछड़ी जाति और अति पिछड़ी जाति की तो मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का एक अलग फॉर्मूला तैयार किया और थोड़ा बड़े रूप में अगड़े-पिछड़ों की राजनीति से से अपनी पार्टी को जान दी।
अब इस लोकसभा चुनाव को लें तो खुलकर यह तुष्टिकरण आपके सामने दिखाई दे रहा है। अब वह चाहे ओवैसी हो या फिर अखिलेश-मायावती। अली से लेकर बलि तक की बातें आखिर हमें यह नहीं दिखाती कि हमारे नेता किस तरफ इसारा कर रहे हैं। बुर्के को लेकर अगर एक तरफ जावेद अख्तर घूंघट पर निशाना तान रहे हैं तो वहीं राजस्थान की कर्णी सेना अपने साथियों के वोट बैंक को इसी बहाने चमकाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। लेकिन क्या भारत में तुष्टिकरण एक सफल प्रयोग है तो आज अगर हम देखें तो सन 2014 में नरेंद्र मोदी या हम कहें तो बीजेपी का आना और बीजेपी की भारी जीत एक बार फिर इस तरफ इसारा किया कि अब नेता कुछ भी कर लें, कितना भी जोर भारत को हिंदू-मुस्लिम, सिख-इसाई बांटने में लगा लें लेकिन अब उनका काम बहुत आसान नहीं रह गया है। तलाक, राम मंदिर, स्वर्ण मंदिर और भाषा के नाम पर वोट अब कठिन होता जा रहा है।
वह दिन गये जब दक्षिण में भाषा के नाम पर, पूर्वोत्तर में जाति के नाम पर और पूरे भारत में धर्म के नाम पर राजनीति चमकाना अब शायद नामुमकिन सा लगता है। पर वह नेता क्या जो किसी भी सही चीज को जल्दी मान जाये। उनके दिमाग में तो आज भी जातियों का प्रतिशत सर्वोपरि है। पर भारत की जनता की पढ़ाई-लिखाई और उसके जीवन स्तर का ग्राफ नेता जानकर भी भुलाना चाहते हैं। क्योंकि उनकी नजर में आज भी भारत वही सांपों से खेलता भारत है। या बैलगाडि़यों पर चलता भारत है। या हक कहें तो पार्टीसन के समय का भारत है जो मुसिलम हिंदु के नाम पर लाखों की गर्दन काट दे। आज अब वह समय दूर नहीं जब भारत एक बार फिर यह दिखा देगा कि मुसलमान नहीं, हिंदू नहीं, सिख नहीं, ईसाई नहीं बल्कि भारत के निर्माण में हमने अपना मत दिया है और इस तुष्टिकरण की राजनीति को धक्का मारते हुए वोटर बतायेगा कि हम सब एक हैं, हम सब सब भारतीय हैं, हम सब हिंदुस्तानी हैं।
आर0पी0 सिंह
सी0ई0ओ0
सुभारती मीडिया लिमिटेड, मेरठ।