फर्जीवाड़े का द्वंद्व

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देवबंद में बीते दस वर्षों से फर्जी डिग्री के आधार पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में राजेश नाम का शख्स डॉक्टरी करते हुए पकड़ा गया। जो अपना नर्सिंग होम भी चला रहा था। अब तक उसके हाथों हजारों आपरेशन हो चुके हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि मरीजों का कितना भला हुआ होगा। सवाल है कि ऐसे शख्स को फर्जी डिग्री के आधार पर कैसे नौकरी मिली? क्या नियुक्ति से पहले दस्तावेजों की जांच-पड़ताल सिर्फ खानापूर्ति होती है? सोचिए, सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर तो मरीज इसी उम्मीद में पहुंचता है कि सामने कुर्सी पर मौजूद शख्स सचमुच का डॉक्टर होगा। पर ऐसी जगहों पर भी फर्जीवाड़ा के मामले चिंतित करते हैं। यह इसलिए भी कि पहले से देश के ग्रामीण इलाकों में झोलाछाप डॉक्टरों की बड़ी समस्या है, जिसे लोग भुगतने को अभिशप्त हैं और आये दिन ऐसे कथित डॉक्टरों के चलते मरीजों की जान पर भी बन आती है। लेकिन इन दूर-दराज इलाकों की आबादी का एक सच यह भी है वहां की स्वास्थ्य सेवा ऐसे ही झोलाछाप डॉक्टरों के हवाले ना चाहते हुए भी है।

देश की जरूरत के हिसाब से डॉक्टर नहीं है। लेकिन जो बीमार होता है उसे इलाज तो चाहिए। बेशक सरकार पर स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए डॉक्टरों की पौध बढ़ाने का दबाव है।अभी पिछली बार कुछ हजार सीटें बढ़ी हैं लेकिन यह एक तरह से ऊंट के मुंह जीरा जैसी पहल है। शायद इसीलिए सरकार ने इसका एक तोड़ यह निकालने की कवायद शुरू कर दी है, जिसमें फार्मासिस्ट भी मरीजों को दवाइयां लिख सकते हैं। दूसरी पैथी के डॉक्टरों को भी एलोपैथ पद्धति के इस्तेमाल की अनुमति दी जा रही है। देश का आयुष मंत्रालय प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों को वक्त की जरूरत को देखते हुए मुख्यधारा में प्रोत्साहित कर रहा है। हमारे यहां तो घरेलू नुस्खे और देसज तरीकों का संवर्द्धन परम्परागत रूप से मौजूद है, बस उसे मांग के अनुरूप रफ्तार देने की जरू रत है। इस सबके बीच जरूरी यह भी है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में फर्जीवाड़ा ना हो, उसको रोकने के लिए चाक -चौबंद तंत्र की आवश्यकता है। यह चिंताजनक है कि इन सात-साढ़े सात दशकों में इस दिशा में अब तक सरकारें नाकाम रही हैं।

उन खामियों को पहचानने की जरूरत पहले है, उसके बाद उस पर सख्त कार्रवाई हो यह भी सुनिश्चित हो। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस विसंगति को उजागर करते हुए मुन्नाभाई एमबीबीएस बनी थी। उसमें इसी तरह के फर्जीवाड़े की तरफ पूरी कहानी बुनी गई थी। थ्री इडियट्स भी ऐसी ही फर्जीवाड़े की कहानी थी, जहां पढ़ कोई रहा और डिग्री किसी और के नाम बन रही। अब से तकरीबन दो दशक पहले बीएचयू के मेडिकल कॉलेज में इसी तरह का मामला सामने आया था, जिसमें एक शख्स ने फर्जी डिग्री के आधार पर प्रोफेसर पद पर अपनी सेवाएं दी। मामला खुला तो सभी हैरत में पड़ गए। देवबंद वाला मामला भी ना खुलता यदि फर्जी डॉक्टर साहब वसूली के खेल में ना पड़ते। पर क्या कीजिएगा हर जगह इसी तरह के खेल जारी हैं और सरकारी तंत्र होते हुए भी नहीं होने जैसा है, यह इस दौर का सच है। बेसिक शिक्षा में भी फर्जीवाड़े के मामले लगातार सामने आते रहते हैं और इसके बावजूद व्यवस्था मजबूत करने की दिशा में ठोस पहल नहीं होती.यह वाक ई दुखद है।

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