क्या महाराष्ट्र विधानसभा का सचिवालय उद्धव ठाकरे को सहयोग नहीं कर रहा वरना विश्वास मत के समय नियमों की इतनी गलतियाँ नहीं होती? वैसे भाजपा के पास वाक आऊट के सिवा कोई विकल्प भी नहीं था क्योंकि सत्ता उन के दरवाजे से वापस चली गई है| वाक आऊट से पहले देवेन्द्र फडणविस ने उन नियमों का हवाला दिया , जिनकी अवहेलना की गई है। बाहर निकल कर उन्होंने मीडिया के सामने वे सब गलतियाँ गिनाईं, फिर वे राज भवन में शिकायत करने भी गए|
हालांकि इस शिकायत का कोई फायदा नहीं होना था क्योंकि एक गलती तो खुद राज्यपाल से भी हुई है। राज्यपाल से गलती यह हुई कि उन्होंने नए मुख्यमंत्री की सिफारिश पर प्रोटर्म स्पीकर ही बदल दिया , जब कि संसदीय इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था| राज्यपाल प्रोटर्म स्पीकर बदलने से इनकार कर सकते थे। अमूमन प्रोटर्म स्पीकर में राजनीतिक दल की भूमिका नहीं होती। विधानसभा सचिवालय वरीयता के हिसाब से तीन चार वरिष्ठ विधायकों की सूची राज्यपाल को सौंपता है , जिन में से एक को प्रोटर्म स्पीकर नियुक्त करने का अधिकार राज्यपाल का होता है।
बाकी चार गलतियाँ सचिवालय की ओर से उद्धव ठाकरे को उचित सलाह नहीं दिए जाने के कारण हुई है| जैसे शपथ लेने वालों को सचिवालय की ओर से गाईड किया जाता है कि शपथ ग्रहण कैसे होता है , नियमानुसार शपथ राज्यपाल की ओर से कहे गए “ मैं ” शब्द दोहराए जाने से शुरू होती है। जब राज्यपाल ने मैं बोल दिया हो तो उसके बाद शपथ लेने वाला राज्यपाल को ही फोलो करता है , लेकिन राज्यपाल की ओर से “मैं” का उच्चारण कर देने के बाद उद्धव ठाकरे ने छत्रपति शिवाजी महाराज को वंदन करने के बाद राज्यपाल को फोलो किया।
कांग्रेस के मंत्रियों ने सोनिया गांधी की वंदना करने से और राष्ट्रवादी कांग्रेस के मंत्रियों ने शरद पवार की वन्दना से शपथ ग्रहण की जो संवैधानिक विधान का उल्लंघन था। इसी तरह सुप्रीमकोर्ट ने देवेन्द्र फडणविस को 27 नवम्बर को चार बजे तक विशवास मत लेने के निर्देश दिए थे , जब देवेन्द्र फडणविस ने 26 नवम्बर शाम को ही इस्तीफा दे दिया तो सुप्रीमकोर्ट के फैसले का कोई मतलब ही नही रह गया था। 27 और 28 नवम्बर को नवनिर्वाचित विधायकों का शपथ ग्रहण हुआ और 28 नवम्बर शाम को उद्धव ठाकरे मंत्रिमडल सदस्यों की शपथ से नई सरकार का गठन हुआ। अत 30 नवम्बर को जन गन मन से नए सत्र की शुरआत होनी चाहिए थी जो नहीं हुई।
सुप्रीमकोर्ट का आदेश अर्थहीन हो चुका था इसलिए नई सरकार को विधानसभा की परम्पराओं का निर्वहन करना चाहिए था। पहले स्पीकर का चुनाव होताफिर विश्वास मत लिया जाता , हालांकि यह किसी नियम का उलंघन नही है कि विश्वासमत पहले लिया जाए, लेकिन पता नहीं क्यों नए प्रोटर्म स्पीकर सुप्रीमकोर्ट का जजमेंट पढ़ कर उस का पालन करवा रहे थे जबकि यह जजमेंट देवेन्द्र फडणविस सरकार के लिए था , जो स्वत: ही गिर चुकी थी। लेकिन सुप्रीमकोर्ट के डर से परम्पराओं का पालन न करना हास्यास्पद और अनाडीपन लगा।
अगर सचिवालय सही समय पर सही सलाह देता तो इन गलतियों से बचा जा सकता था| पर इन गलतियों को सामने रख कर फडणविस का राजनीतिक ड्रामा भी समझ से परे है, उन्हें विनम्र हो कर अपनी राजनीतिक हार स्वीकार करनी चाहिए| सत्ता की भूख में राजनीतिक अनाड़ीपन तो उन्होंने किया जो बिना बहुमत के ही अजित पवार के साथ मिल कर जुगाड़ से मुख्यमंत्री बन बैठे थे। क्या वह सब नियमों के अनुसार था जो अब राज्यपाल के सामने नियमों की दुहाई देने गए। नियमों की दुहाई का मतलब तो राजभवन भी अच्छी तरह जानता है।
अगर बहुमत न हो तो बिना लेनदेन के सरकारें नहीं बना करती। इस बात को भाजपा नहीं समझी लेकिन शिवसेना बेहतर समझती है , इसलिए उसने मुख्यमंत्री पद के बदले वित्त,राजस्व,होम,स्पीकर सब कुछ कुर्बान करना मंजूर कर लिया। राजनीति करना कोई शरद पवार से सीखे, उन्होंने अपने भतीजे के उपमुख्यमंत्री बनने को भी राजनीतिक तौर पर बाखूबी भुनाया। एक तरफ भाजपा से केंद्र में कृषि मंत्रालय और देवेन्द्र फडणविस की जगह पर मराठा मुख्यमंत्री की शर्त रखी जा रही थी, तो दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे के सामने मंत्रालयों की शर्तें रखी जा रही थी।
सारे मौट मंत्रालय गवां कर भले ही उद्धव ठाकरे खाली हाथ होंगे, पर सवाल तो मुख्यमंत्री पद का था , जो उन्होंने फडणविस से हथिया लिया। मोदी-शाह का देवेन्द्र फडणविस मोह भी समझ से परे है और महाराष्ट्र में सत्ता के बदले कृषि मंत्रालय का त्याग भी बहुत छोटा होता। अब सरकार बनवाने गए भूपेन्द्र यादव की भी तो फजीहत हो रही है।
अजय सेतिया
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निज विचार हैं