देश के विभिन्न हलकों से भीड़ हिंसा को लेकर कई मामले सुर्खियां बने हैं और इसमें रोज सबसे ज्यादा चिंता पैदा करने वाली बात है, वो है साम्प्रयादिक सौहार्द को बिगाडऩे वाली घटनाएं जिससे राष्ट्र की छवि पर भी बट्टा लगता है। इसके साथ ही समुदायों के बीच अविश्वास भी बढ़ता है। नए भारत का सपना पाले नागरिकों के लिए यह चिंता का सबब होना ही चाहिए। इसी दर्द और चिंता को देश के 49 प्रबुद्ध नागरिकों ने खत लिखकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से साझा किया है। इसमें श्याम बेनेगल, अर्पणा सेन और अनुराग कश्यप जैसे लोग शुमार हैं। इनका कहना है कि मौजूदा सरकार में एक विशेष सम्प्रदाय के लोग गोरक्षा के नाम पर भीड़ हिंसा का शिकार हो रहे हैं। जिन राज्यों में ऐसी घटनाएं हो रही हैंए वहां की सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं। इन बुद्धिजीवियों की चिंता यह भी है कि जय श्रीराम का इस्तेमाल हिन्दूवादी संगठन युद्धघोष के रूप में कर रहे हैं।
इन लोगों की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मांग है कि दलितों-मुस्लिमों को भीड़ हिंसा के नाम पर निशाना बनाती ताकतों पर लगाम लगाने के लिए सख्त कानून बनाने की आपात आवश्यकता है ताकि आगे से ऐसी अमानवीय घटनाएं ना हों। बुद्धिजीवियों की चिंता जायज है, सुप्रीम कोर्ट ने भी केन्द्र सरकार से भीड़ हिंसा को रोकने के लिए कानून बनाए जाने को कहा है। संसद में भी विपक्ष की तरफ से बार-बार यह मांग उठी है कि भीड़ हिंसा रोकने का कारगर उपाय किया जाना चाहिए। सरकार की तरफ से भी यह आश्वस्त किया गया है कि कानून बनाने की दिशा में तैयारी चल रही है। बिल का प्रारूप तैयार होते ही उसे सदन के पटल पर रखा जाएगा। विशिष्ट नागरिकों से लेकर विपक्षी नुमाइंदों तक की मांगें वक्त की जरूरत है, उससे कोई भी सरकार भला कैसे मुंह फेर सकती है। पर इसी के साथ कुछ सवाल विशिष्ट नागरिकों से भी पूछे जाने की जरूरत है।
पहलाए प्रधानमंत्री को खुला खत लिखने और फिर उस बाबत प्रेस कांफ्रेंस की कितनी जरूरत थी, दूसरा अपनी बात के लिए प्रधानमंत्री से निजी तौर पर मिलते और भीड़ हिंसा को लेकर चिंता जाहिर करते तो क्या उनका कथ्य प्रभावशाली नहीं रहता, तीसरा, समस्या को दलित-मुस्लिम के खांचे में बांटना कितना जरूरी था। चौथा, किसने कहा, सरकार का विरोध देशद्रोह की श्रेणी में आता है। बेशक भीड़ हिंसा बड़ी समस्या है लेकि न इसको वजनदार बनाने के लिए क्या जय श्रीराम नाम को जयघोष के तौर पर रेखांकित करना किसी खास राजनीतिक हित की तरफ इशारा नहीं करता। ऐसा इसलिए कि भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल में राजनीतिक लड़ाई के लिए जय श्रीराम नारे के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है और इस वजह से हालांकि जय काली और जय बंग का नाम उछाल रही है फिर भी उसके लिए राज्य में अपनी ताकत को बचाये रखने में मुश्किल पेश आ रही है।
आम चुनाव में कहां ममता बनर्जी की नजर राज्य की सभी संसदीय सीटों पर थी लेकिन 22 सीटों पर संतोष करना पड़ा जबकि भाजपा 2 से बढक़ र 18 हो गयी। यहां पश्चिम बंगाल का जिक्र इसलिए कि खुले खत पर दस्तखत करने वाली ज्यादातर विशिष्ट हस्तियां पश्चिम बंगाल से संबंध रखती है। इससे पहले एक कार्यक्रम में नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमत्र्य सेन ने भी कहा कि जय श्रीराम बंगाल की संस्कृति नहीं है, यहां तो जय काली से लोग जुड़ाव महसूस करते हैं, हालांकि अपनी-अपनी सोच, किसे किस नाम से अनुराग है, यह अर्थ नहीं रखता पर जय श्रीराम को संस्कृति से काटकर समझने की प्रवृत्ति सहज नहीं मानी जा सकती। सियासी दलों का तो काम है, सियासत करना पर सिविल सोसाइटी के लोगों को सच को सामने लाने के लिए खुलकर अपनी बात कहनी चाहिए।