पारदर्शिता की नहीं परवाह!

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देश में सीआईसी का पद एक बार फिर खाली हो गया है। पिछले 6 साल में पांचवीं बार ऐसा हो रहा है कि देश में चीफ इन्फॉर्मेशन कमिश्नर का पद खाली पड़ा हुआ है। केंद्रीय सूचना आयोग में सीआईसी के अलावा सूचना आयुक्तों के भी दस में से चार पद खाली पड़े हैं। यानी सीआईसी समेत जहां केंद्रीय सूचना आयोग में 11 कमिश्नर होने चाहिए, वहां अभी सिर्फ 6 कमिश्नर ही मौजूद हैं। यह तो साफ है कि केंद्रीय सूचना आयोग और देश के दूसरे सूचना आयोगों में आयुक्तों के पद खाली होने का प्रभाव सूचना अधिकार कानून यानी आरटीआई एक्ट पर पड़ रहा है। पारदर्शिता के लिये काम करने वाले संगठनों का कहना है कि सीआईसी में अभी सूचना संबंधी 35,000 मामले लंबित पड़े हैं। इसकी वजह से नागरिकों को सूचना पाने के लिए महीनों और कई बार तो सालों इंतजार करना पड़ता है और यह काफी निराश करने वाला है।

यह सरकार की इच्छाशक्ति पर बड़ा प्रश्नचिह्न है। इससे पता चलता है कि सरकार सूचना अधिकार कानून को कमजोर करना चाहती है, तभी सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं हो रही है। जब पद खाली रहते हैं तो लोगों की अपीलें लंबित रहती हैं और उनके निवारण में अधिक वक्त लगता है। हाल यह है कि सामान्य आरटीआई अर्जियों का जवाब मिलने में तीन-तीन साल तक लोगों को इंतजार करना पड़ा है। ऐसे में सूचना का क्या महत्व रह जाता है? इसलिए इस आरोप में दम है कि सरकार ने नागरिकों के सूचना पाने के अधिकार पर सीधा हमला करने के बजाय उसके लिए परोक्ष रास्ता निकाल लिया है। मामला सिर्फ केंद्र सरकार या बीजेपी शासित राज्यों के सूचना आयोगों तक सीमित नहीं है। देश के कई सूचना आयोगों में भी यही हाल है। मिसाल के तौर पर राजस्थान सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली है। इसी तरह झारखंड और महाराष्ट्र में भी कई पद खाली पड़े हैं और ढेर सारे मामले लंबित हैं। महाराष्ट्र में पचास हजार से अधिक शिकायतों का निपटारा होना बाकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी 2019 को एक आदेश में सरकार से केंद्रीय सूचना आयोग के साथ-साथ कई राज्यों में खाली पड़े पदों को एक से 6 महीने के भीतर भरने को कहा था। फिर पिछले साल फिर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को 3 महीने के भीतर आयोग में खाली पदों को भरने के निर्देश दिए थे। लेकिन उसका कितना असर हुआ, यह साफ है।

आखिर सरकार को इसमें दिकत या आता है? दरअसल आरटीआई के तहत जानकारी मांगी जाती हैं। ढेरों ऐसी जानकारी देनी पड़ती हैं जो सरकार के लिए दिकत तलब होती है। ये केवल केंद्र सरकार के ही साथ नहीं बल्कि हर राज्य की सरकारों को इससे तकलीफ होती है। लिहाजा दूसरे रास्ते अपनाए जाते हैं ताकि ना रहे बांस और ना बजे बांसुरी। लेकिन या ये रास्ता सही है? सब कुछ सही रखना या रखवाना सरकार का काम है, अगर सब सही है तो फिर सरकार को किसी तरह की परेशानी होनी ही नहीं चाहिए। अगर परेशानी है तो जाहिर सी बात है कि सब कुछ सही नहीं। अगर इतने खास ओहदों पर भी अफसर नहीं होंगे तो फिर नीचे तक का अमला किस तरह काम करेगा..करेगा भी या नहीं ये कौन जाने? हर सरकार को इसके पुता बंदोबस्त करने ही चाहिए योंकि सूचना पाना जनता का अधिकार है और उसे किसी भी कीमत पर इससे महरूम नहीं किया जा सकता।

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