पत्थर का देवता बोलता नहीं है…

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आप क्या अयोध्या गए है? क्या रामजन्म भूमि में मस्जिद ढांचे के नीचे या इन दिनों टेंट में रामलला को देखा है? मैंने दोनों स्थितियों में देखा है। इस बार चुनाव के वक्त अयोध्या में जब जन्मस्थान गया तो सुरक्षा व टेंट की बाड़ेबंदी में मूर्ति देख भाव आया कि जितने दर्शनार्थी यहां आते हैं वे और नौ सौ साल पहले सन् 1299 में स्वामी रामानंद के जन्म के वक्त के दर्शनार्थी क्या राम को लेकर एक ही अर्थ लिए हुए नहीं होंगे? नौ सौ साल पहले भी राम हिंदू छटपटाहट का पर्याय थे और आज भी हैं। कबीर के निर्गुण राम और तुलसी के सगुण राम, जन्म स्थान के राम और बिना जन्म स्थान के राम, गांधी के राम या आडवाणी के राम, उत्तर प्रदेश में राम या बंगाल में, क्या सभी का राम सत्य हिंदू छटपटाहट का भाव और अर्थ लिए हुए नहीं है?

सनातनी हिंदू की दो मोटी हकीकत जानें। एक, हिंदू की ईश्वरीय उपासना में भक्ति का भाव पहले नहीं था। मोटे तौर पर आठवीं-नौवीं सदी में भागवत रचना, दक्षिण में आलावार संतों और फिर रामानुज, स्वामी रामानंद ने हमे भक्ति काल में, हिंदुओं को भक्त में परिवर्तित किया।

दूसरा तथ्य है कि उससे पहले राम की उपासना नहीं थी। हिंदू मानस में राम भगवान विष्णु के रूप में पूजित थे। पर रामोपासना दक्षिण के आलावारों से प्रारंभ हुई और रामानुज द्वारा भक्ति को श्रेष्ठ, सुगम उपासना पद्वति बताने की परंपरा की चौथी पीढ़ी के स्वामी रामानंद ने काशी के किनारे ‘राम’ नाम के गुरूमंत्र में तुलसी और कबीर की अनाम-अरूप बनाम अवतारी उपास्य राम की जो दो धाराएं बनाई उससे फिर राम कथा का सिलसिला बना। और अपना मानना है कि वह वक्त, वह भक्ति काल अयोध्या व राम जन्म स्थान का द्वंद लिए हुए था!

हां, यह मोटी मगर भारी और जटिल बात है। रामधारी सिंह दिनकर की ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में ‘भक्ति आंदोलन और इस्लाम’ अध्याय, डॉ. राममनोहर लोहिया की राम विवेचना, गांधी के रामराज्य आग्रह आदि का मोटा निचोड़ अपने को यही समझ आता है कि इस्लाम के आने, उसकी आक्रामकता के बीच हिंदू संतों ने अपने बचाव, सगुणी समस्याओं से पार पाने के लिए पहले कृष्ण लीला की रसिकता से लोगों को बाहर निकाला और राम नाम की सगुणता को फैलाया व भक्ति बनवाई। तुलसीदास ने राम का भक्त बताते हुए अपने मानस से राम में मर्यादाओं, घर-परिवार के चरित्र के विविध रूपों, शालीन वीरता, आदर्श शासन का जनमानस के आगे लोकभाषा में जो खाका खींचा तो वह इस्लामी चुनौती के आगे हिंदू धर्म की ओर से प्रतिकार और विकल्प दोनों था। टूटे मंदिरों, टूटी प्रतिमाओं, बिखरे धर्म और बिखरी हिंदू व्यवस्था के भयावह दौर के बीच रामानंद और तुलसीदास ने हिंदुओं को राम नाम की वह अलख दी, जिसमें पीड़ा के बीच भक्ति से आदर्श के लिए (राम और रामराज्य) लौ रही।

सोचें, काशी के किनारे, हर, हर महादेव-शिव के घर में तुलसी-कबीर का राम भक्ति का दौर क्यों चला? दो टूक तथ्य इस्लामी शासको द्वारा हिंदू मंदिरों-प्रतिमाओं को मध्य काल में लगातार तोड़े जाने का इतिहास है। मथुरा में श्रीकृष्ण मंदिर, काशी में शिव मंदिर, अयोध्या में राम मंदिर का जब ध्वंस हुआ तो हिंदू कैसी असहायता में रहा इसका एक प्रमाण तब के संत नामदेव की यह उक्ति है -पत्थर का देवता बोलता नहीं है। वह चोट खा कर टूट जाता है। और पत्थर के देवताओं के पुजारी सब खो बैठते हैं। जाहिर है काशी के शिव उपासक भी तब असहाय व सब कुछ खोए हुए थे। सबको उपासना, भक्ति के साथ तब वह रोडमैप, मॉडल चाहिए था, जिसमें शक्ति की कामना, अच्छाई-बुराई का युद्ध है तो मर्यादापूर्ण- कल्याणकारी राज की परिकल्पना भी। वह काम तुलसी की लेखनी से हुआ। उन्होंने राम और रामराज्य की महिमा में जो लिखा, फिर उस पर रामलीलाओं से हिंदू मनोविश्व को जो अनुभूति हुई तो उससे अपने आप राम और रामराज्य शब्द हिंदुओं के दिल-दिमाग में आदर्श व श्रेष्ठतम राजनीतिक व्यवस्था, शासन शैली का मनोभाव बनाता गया।

यह मनोभाव पूरे देश में बना। रामानंद के मुंह से निकला ‘राम’ शब्द कबीर के लिए गुरू मंत्र बना तो जन-जन के बीच भी ‘राम’ शब्द लोक व्यवहार (‘राम-राम सा’ ‘जयश्री राम’ का अभिवादन, अंतिम उद्बोधन में ‘राम नाम सत्य’ आदि) में पैठा तो बुद्धि-मनन-हिंदू के राजनीतिक दर्शन की प्रतिमूर्ति में रामराज्य की अवधारणा लोकप्रियता पाती गई। आखिर मुस्लिम आक्रांताओं और उनके राज के वक्त हिंदुओं को बतौर चुनौती यह तो पूछा ही जाता रहा होगा कि तुम हिंदुओं को क्या राज करना आता है? क्या है तुम लोगों के राज की कल्पना?

मतलब मध्य काल में इस्लाम या 18वीं सदी बाद ईसाइयत की चुनौती और बुद्धिवाद की कसौटी में हिंदू के जवाब का क्या रामबाण नुस्खा हुआ? तो वह था रामराज्य शब्द। ऐसा भक्तिकाल, तुलसी की रामायण के घर-घर पहुंचने से था। हिंदू अवचेतन में सियासी संर्घष, राजनीतिक म़ॉडल में राम और रामराज्य सदियों पुरानी घुट्टी है। तभी हिंदू मानस को समझ कर राजनीति करने वाले गांधी ने अपने आपको महात्मा-संत बनाया तो वे रामराज्य की बात को भी जीवन भर पकड़े रहे। डॉ. लोहिया ने हिंदूजन में राम की महिमा के अर्थ को बूझा था तो कांग्रेस के गोविंद वल्लभ पंत आदि भी राम का अर्थ जाने हुए थे तभी उन्होंने अयोध्या के मस्जिद ढांचे में मूर्ति ऱखे जाने की घटना को हकीकत में बदलने दिया और समर्थ रामदास के परम अनुयायी पीवी नरसिंह राव ने टेंट में रामलला को स्थापित होने दिया। तमाम दबावों के बावजूद उन्होने फिर से मस्जिद बनाने की जिद्द नहीं पाली।

ये छोटी और बिखरी हुई बातें नहीं हैं। राम का अर्थ मध्य काल के भक्ति युग से आज तक किसी ने किसी रूप में (निर्गुण या सगुण में) हिंदू असहायता, हिंदू संर्घष का सियासी द्वंद लिए हुए है। यही रामानंद से ले कर कबीर, तुलसीदास, सूरदास, समर्थ रामदास, नानक, दादूदयाल से लेकर कांग्रेस की तिलक धारा, गांधी, हिंदू महासभा, करपात्री महाराज, आरएसएस, भाजपा सबकी राम कथा अनंता का सार तत्व है। हकीकत है औसत हिंदू की आस्था में अनादि काल से आज तक त्रिमूर्ति के शिव, विष्णु और ब्रह्या की ही मूलतः उपासना रही है। राम वरदान-मन्नत की आस्था से नहीं बल्कि संर्घष के विजयोत्सव, शस्त्र पूजा को प्रायोजनों में पूजनयी रहे। रामनवमी का मामला भी समकालीन इतिहास में अस्सी के दशक में विश्व हिंदू परिषद् के प्रायोजन से लोक व्यवहार में वैसे ही बना है जैसे भक्ति काल में रामलीला का सिलसिला शुरू हुआ।

तभी यह बहस बेमतलब है कि गांधी बनाम संघ में राम के अर्थ या रामराज्य कल्पना में भेद किया जाए। कुछ वैसे ही जैसे स्वामी रामानंद से ‘राम’ शब्द का गुरूमंत्र लिए कबीर और तुलसी को ले कर किया जाता रहा हैं। इस पर कल।

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार है…

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