नेताओं को हटाने की नीति बने

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महान क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेंट ने कहा था, ‘रिटायर तब हों, जब लोग पूछें क्यों, तब नहीं जब लोग पूछने लगें क्यों नहीं…’। अपने रिटायरमेंट का समय तय करना आसान नहीं होता। क्रिकेट में चयन समिति होती है, जो इशारा कर देती है कि खेल छोड़ना है। कॉर्पोरेट में बोर्डरूम यह फैसला ले लेते हैं। नौकरशाही में रिटायरमेंट की तय उम्र है। वहीं राजनीति में न तो रिटायरमेंट की उम्र है और न ही संस्थागत व्यवस्था। नतीजतन भारतीय राजनीति में पीढ़ीगत बदलाव सुनिश्चित करना अब भी चुनौतीपूर्ण है।

पंजाब में हुई उथल-पुथल का उदाहरण देखें। एक 79 वर्षीय मुख्यमंत्री को लगभग जबरदस्ती हटाया गया। कैप्टन अमरिंदर सिंह दो कार्यकालों में, नौ वर्ष पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। 2016 में उन्होंने कहा था कि यह उनका अंतिम चुनाव होगा। फिर इस साल अचानक उनका मन बदल गया और उन्होंने ‘लोगों की सेवा’ जारी रखने का फैसला लिया। कैप्टन का संपर्क विधायकों और लोगों से टूट रहा था, फिर भी वे राजनीतिक युद्धभूमि छोड़ना नहीं चाहते थे, जिससे कांग्रेस मुश्किल परिस्थिति में फंस गई थी।

कांग्रेस में कैप्टन अकेले नहीं हैं जो सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत (70) तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन युवा सचिन पायलट को एक इंच जगह नहीं देना चाहते। उत्तराखंड में हरीश रावत (73) को उम्मीद है कि वे अगले चुनाव में पार्टी का चेहरा होंगे। हरियाणा में दो बार मुख्यमंत्री रह चुके भूपिंदर सिंह हुड्‌डा (74) हैट्रिक का सपना देख रहे हैं। मप्र में 70 पार कमलनाथ-दिग्विजय द्वय ने सत्ता समीकरणों से युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया को बाहर कर दिया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कई 70, तो कुछ 80 से ज्यादा उम्र के नेता हैं।

सात वर्ष पहले नरेंद्र मोदी के उभरने से पहले भाजपा की स्थिति कांग्रेस से बहुत अलग नहीं थी। तब मोदी ने ‘मार्गदर्शक मंडल’ बनाया था, जिसका उद्देश्य वाजपेयी-आडवाणी पीढ़ी के नेताओं को पार्टी के मुख्य फैसले लेने वाले निकाय से दूर रखना था। उस समय इसे ‘वृद्धाश्रम’ मानते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का अपमान माना गया था।

सात वर्ष बाद ‘मार्गदर्शक मंडल’ की अवधारणा समझ आ रही है। ‘वरिष्ठ’ नेताओं के लिए 75 वर्ष कटऑफ उम्र तय कर भाजपा निर्विरोध पीढ़ीगत बदलाव लाने में सफल रही। भाजपा शासित सभी राज्यों में अब मुख्यमंत्री 70 वर्ष से कम उम्र के हैं, कई तो 50 से भी कम के हैं। सिर्फ एक अपवाद कर्नाटक में भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा थे, जिन्होंने पिछले महीने 78 वर्ष की उम्र में पद छोड़ा। वे अब तक इसलिए टिके रहे क्योंकि भाजपा के पास उनके कद का कोई लिंगायत नेता नहीं है।

नियंत्रित पारिवारिक बिजनेस की तरह चल रही क्षेत्रीय पार्टियां को उन नेताओं द्वारा चलाए जाने की संभावना अधिक होती है जो आसानी से ‘सेवानिवृत्त’ नहीं होंगे या अपने बच्चों को भी आसानी से रास्ता नहीं देंगे। शरद पवार (80) एनसीपी के सबसे कद्दावर नेता बने हुए हैं।

एम करुणानिधि करीब आधी सदी डीएमके का चेहरा रहे। बीमारी के कारण ही मुलायम सिंह और लालू प्रसाद को अपनी सत्ता यादव नेताओं की अगली पीढ़ी को देनी पड़ी। ओडिशा में नवीन पटनायक (75) बीजू जनता दल का एकमात्र चेहरा बने हुए हैं, उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं दिखता।

राजनीति में ‘अनुभव’ और बड़े ‘कद’ को महत्व देना बदलाव में बाधा है। इसे दूर करने के कुछ सुझाव यह हैं:

एक विधायी संशोधन जो कार्यकाल को सीमित करे, जैसे किसी भी विधायक या सांसद के लिए अधिकतम चार से पांच कार्यकाल, आयु नहीं बल्कि अवधि के आधार पर।

पार्टी संगठन में नेतृत्व पदों के लिए बारी की नीति। जैसे कोई भी दो बार से ज्यादा पार्टी अध्यक्ष नहीं हो सकता।

सभी स्तरों पर एक व्यक्ति, एक पद का सिद्धांत।

किसी भी चुनाव में कम से कम आधे टिकट 50 वर्ष से कम उम्र के उम्मीदवार को देना अनिवार्य हो।

राजनीतिक परामर्श की औपचारिक प्रणाली बने जो पीढ़ियों के बीच स्वस्थ, कम टकराव वाले संबंध को बढ़ावा दे।

सवाल यह है कि कौन-सी पार्टी इस परिस्थिति को स्वीकारने का जज्बा दिखाएगी? या शाश्वत सत्ता जीवन का परम अमृत बना रहेगा?

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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